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(2) '''शिष्य ([[Special:MyLanguage/chela|चेला]]):''' ऐसा व्यक्ति जो गुरु के साथ एक बंधन में बंधने की इच्छा रखता है, जो गुरु के प्रकाशित लेखों के बजाय सीधे गुरु द्वारा सीखना चाहता है। शिष्य अपनी कार्मिक उलझनों और सांसारिक इच्छाओं के जाल से निकलकर गुरु का अनुसरण करता है।<ref>मैट ४:१९; मार्क्स १:१७</ref> शिष्य गुरु की सेवा के दौरान ब्रह्मांडीय आत्मा की दीक्षा प्राप्त करता है।अब शिष्य का दिल, दिमाग और आत्मा विद्यार्थी के रूप प्राप्त की गई शिक्षाओं के प्रति कृतज्ञता महसूस करता है और उसके दिल में सबके प्रति निस्वार्थ प्रेम जन्म लेता है। यह प्रेम उसे बलिदान देने, निःस्वार्थ सेवा करने और प्रत्येक व्यक्ति के भीतर के ईश्वर को स्वयं को समर्पण करने को प्रेरित करता है। जब उसकी निस्वार्थं सेवा का स्तर इतना अधिक हो जाता है कि ईश्वर के अनुसार "संतोषजनक" होता है और शिष्य अपनी त्रिदेव ज्योत और, कर्म को संतुलित करने में लग जाता है, तो वह अगले पायदान पर चढ़ने के लिए तैयार हो जाता है। | (2) '''शिष्य ([[Special:MyLanguage/chela|चेला]]):''' ऐसा व्यक्ति जो गुरु के साथ एक बंधन में बंधने की इच्छा रखता है, जो गुरु के प्रकाशित लेखों के बजाय सीधे गुरु द्वारा सीखना चाहता है। शिष्य अपनी कार्मिक उलझनों और सांसारिक इच्छाओं के जाल से निकलकर गुरु का अनुसरण करता है।<ref>मैट ४:१९; मार्क्स १:१७</ref> शिष्य गुरु की सेवा के दौरान ब्रह्मांडीय आत्मा (Cosmic Christ) की दीक्षा प्राप्त करता है।अब शिष्य का दिल, दिमाग और आत्मा विद्यार्थी के रूप प्राप्त की गई शिक्षाओं के प्रति कृतज्ञता महसूस करता है और उसके दिल में सबके प्रति निस्वार्थ प्रेम जन्म लेता है। यह प्रेम उसे बलिदान देने, निःस्वार्थ सेवा करने और प्रत्येक व्यक्ति के भीतर के ईश्वर को स्वयं को समर्पण करने को प्रेरित करता है। जब उसकी निस्वार्थं सेवा का स्तर इतना अधिक हो जाता है कि ईश्वर के अनुसार "संतोषजनक" होता है और शिष्य अपनी त्रिदेव ज्योत और, कर्म को संतुलित करने में लग जाता है, तो वह अगले पायदान पर चढ़ने के लिए तैयार हो जाता है। | ||
Revision as of 09:23, 28 March 2024
(2) शिष्य (चेला): ऐसा व्यक्ति जो गुरु के साथ एक बंधन में बंधने की इच्छा रखता है, जो गुरु के प्रकाशित लेखों के बजाय सीधे गुरु द्वारा सीखना चाहता है। शिष्य अपनी कार्मिक उलझनों और सांसारिक इच्छाओं के जाल से निकलकर गुरु का अनुसरण करता है।[1] शिष्य गुरु की सेवा के दौरान ब्रह्मांडीय आत्मा (Cosmic Christ) की दीक्षा प्राप्त करता है।अब शिष्य का दिल, दिमाग और आत्मा विद्यार्थी के रूप प्राप्त की गई शिक्षाओं के प्रति कृतज्ञता महसूस करता है और उसके दिल में सबके प्रति निस्वार्थ प्रेम जन्म लेता है। यह प्रेम उसे बलिदान देने, निःस्वार्थ सेवा करने और प्रत्येक व्यक्ति के भीतर के ईश्वर को स्वयं को समर्पण करने को प्रेरित करता है। जब उसकी निस्वार्थं सेवा का स्तर इतना अधिक हो जाता है कि ईश्वर के अनुसार "संतोषजनक" होता है और शिष्य अपनी त्रिदेव ज्योत और, कर्म को संतुलित करने में लग जाता है, तो वह अगले पायदान पर चढ़ने के लिए तैयार हो जाता है।
- ↑ मैट ४:१९; मार्क्स १:१७