मानवी चेतना
वह चेतना जो स्वयं को मानव के रूप में जानती है - यह सीमित ज्ञान है जो मनुष्य को नश्वर, पतित, पापी, त्रुटिओं का पुतला और इंद्रियों के अधीन गुनाहों का देवता मानती है। और इसी कारण आत्मिक चेतना मनुष्य के पुत्र के साथ घोषणा करती है: "मैं एक तुच्छ मानव हूं" और स्वयं से कुछ नहीं कर सकता। मुझ में निहित पिता का रूप (ईश्वरीय स्वरूप) ही भगवान् के सारे कार्य करता है।[1]
वह चेतना जो स्वयं को - सीमित, नश्वर, पतित, पापी, त्रुटि और इंद्रियों के जुनून के अधीन - और इसलिए मनुष्य के पुत्र के साथ घोषणा करती है: "मैं अपने स्वयं के (मानव) स्व से कुछ नहीं कर सकता। यह पिता (मैं हूँ उपस्थिति) मुझ में है जो प्रभु का कार्य करता है।
इसे भी देखिये
दहलीज़ पर रहने वाला हमारा नकरात्मक रूप
स्रोत
Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, Saint Germain On Alchemy: Formulas for Self-Transformation
- ↑ जॉन ५:३०; १४:१०.