गौतम बुद्ध

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“करुणामय व्यक्ति” गौतम बुद्ध विश्व के भगवान का पद धारण करते हैं। (बुक ऑफ़ रेवेलशन ११.४ में इन्हें “पृथ्वी का भगवान” कहा गया है)। ये गोबी रेगिस्तान के ऊपर स्थित शंबाला आश्रय स्थल के प्रमुख हैं। यहां से वह पृथ्वी के विकास के लिए जीवन की त्रिदेव ज्योत को बनाए रखने का काम करते हैं। गौतम (जिन्होनें ५६३ बी सी में सिद्धार्थ गौतम के रूप में जन्म लिया था) एक उत्तम शिक्षक हैं - इन्होनें जीवात्मा की दस सिद्धियों और चार श्रेष्ठ सत्यों में निपुणता प्राप्त की थी। इन्होनें आष्टांगिक मार्ग (सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प,सम्यक वाक्, सम्यक कर्मांत,सम्यक आजीव,सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि) में भी महारत हासिल की थी। ये समिट यूनिवर्सिटी तथा रोशनी की मशाल ले जाने के लिए ज्योति माता के उद्देश्य के प्रायोजक हैं।

गौतम का जन्म उस समय हुआ जब हिंदू धर्म अपने पतन के अंतिम चरण में था। पुरोहित लोग पक्षपात करते थे, वे जनता को ईश्वरीय ज्ञान से विमुख रखते थे जिससे जनता अज्ञानी रहती थी। जाति व्यवस्था धर्म के माध्यम से मुक्ति का साधन बनने के बजाय आत्मा को कैद करने का साधन बन गई थी। राजकुमार सिद्धार्थ के रूप में जन्मेन गौतम ने ज्ञान प्राप्त करने के लिए महल, सत्ता, पत्नी और बेटे को छोड़ दिया ताकि वे लोगों को ज्ञान दे पाएं।

प्रारंभिक जीवन

गौतम बुद्ध का जन्म उत्तरी भारत में हुआ था। वह शाक्य साम्राज्य के शासक राजा शुद्धोदन और रानी महामाया के पुत्र थे, और इस प्रकार वे क्षत्रिय (योद्धा या शासक) जाति के सदस्य थे।

प्राचीन पाली ग्रंथों और बौद्ध धर्मग्रंथों में लिखा है कि गौतम के जन्म से पहले उनकी मां महामाया ने एक सपना देखा था जिसमे एक सुंदर श्वेत-धवल हाथी उनके बगल से उनके गर्भ में प्रवेश कर रहा है। स्वप्न का अर्थ जानने के लिए बुलाये गए ब्राह्मणों ने उन्हें बताया कि उनकी कोख से एक पुत्र जन्म लेगा जो या तो एक सार्वभौमिक सम्राट बनेगा या फिर बुद्ध।

अपनी गर्भावस्था के अंतिम दिनों के दौरान, रानी ने अपने माता-पिता से मिलने के लिए देवदहा की यात्रा शुरू की, जैसा कि भारत में प्रथा थी। रास्ते में वह अपने परिचारकों के साथ लुम्बिनी पार्क में रुकी और साल के पेड़ की एक फूल वाली शाखा के पास पहुंची। वहां, खिले हुए पेड़ के नीचे, बुद्ध का जन्म मई महीने की पूर्णिमा के दिन हुआ था।

जन्म के पांचवें दिन, महल में नामकरण समारोह में १०८ ब्राह्मणों को आमंत्रित किया गया। राजा ने उनमें से आठ सबसे अधिक विद्वानों को बच्चे के शारीरिक चिह्नों और शारीरिक विशेषताओं की व्याख्या करके उसके भाग्य को "पढ़ने" के लिए बुलाया।

उनमें से सात विद्वान इस बात पर सहमत थे कि यदि वह घर पर रहेगा, तो वह भारत को एकजुट करने वाला एक सार्वभौमिक राजा बन जाएगा; लेकिन अगर वह घर से बाहर निकला, तो वह बुद्ध बन जाएगा और दुनिया से अज्ञानता का पर्दा हटाने का काम करेगा। समूह के आठवें और सबसे छोटे विद्वान कोंडाना ने यह घोषणा की कि वह निश्चित रूप से बुद्ध बनेगा। उन्होंने यह भी कहा कि बालक जिन चार चीज़ें देखने के बाद दुनिया को त्याग देगा वह हैं: एक बूढ़ा आदमी, एक बीमार आदमी, एक मृत आदमी और एक पवित्र आदमी।

बच्चे का नाम सिद्धार्थ रखा गया, सिद्धार्थ का अर्थ है “जिसका उद्देश्य पूरा हो गया हो”। जन्म के सात दिन बाद, सिद्धार्थ की माँ का निधन हो गया, और उनका पालन-पोषण उनकी बहन महाप्रजापति ने किया, जो बाद में उनकी पहली महिला शिष्यों में से एक बनीं।

राजा, ब्राह्मणों की भविष्यवाणियों और अपने उत्तराधिकारी को खोने की संभावना से अत्याधिक चिंतित थे इसलिए उन्होंने अपने बेटे को दर्द और पीड़ा से बचाने के लिए हर सावधानी बरती। बालक सिद्धार्थ को हर प्रकार की सुख-सुविधा और विलासिता का जीवन दिया गया। वे सदा चालीस हजार नर्तकियों से घिरे हुए अपने महलों में रहते थे।

अंगुत्तर निकाय (एक प्रामाणिक पाठ) में, गौतम ने अपने पालन-पोषण का वर्णन अपने शब्दों में किया है:

मेरी देखभाल अत्यंत कोमलता से की गई... अत्यंत, असीम रूप से। मेरे पिता ने महल में खास मेरे लिए कमल के तालाब बनाए गए थे - एक तालाब नीले कमल के फूलों का था, एक सफेद कमल के फूलों का और एक लाल कमल के फूलों का... मेरे सिर हमेशा छाता से ढका जाता था ताकि में सर्दी, गर्मी, धूल, भूसी, या ओस से परेशान न होऊं। मैं सदा अपने तीन महलों में रहता था,... ठंड के दौरान में एक महल में रहता था; एक में गर्मियों में; और एक में बरसात के मौसम में। बरसात के मौसम में महल में रहते हुए, संगीतकारों, गायकों और महिला नर्तकियों से घिरे हुए, चार महीने तक मैं महल के नीचे भी नहीं उतरता था। हेलेना रोएरिच, फॉउण्डेशन्स ऑफ़ बुद्धिज़्म (न्यूयॉर्क: अग्नि योग सोसायटी, १९७१), सातवां पृष्ठ।

सोलह साल की उम्र में, हथियारों की प्रतियोगिता में अपनी कुशलता साबित करने के बाद, राजकुमार सिद्धार्थ ने अपनी ममेरी बहन यशोधरा से शादी की। परन्तु इसके कुछ समय बाद ही वह उदासीन और विचारमग्न रहने लगे। उनतीस साल की उम्र में उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड आया - तब वे यात्रा पर निकल पड़े। उन्होंने चार यात्राएं की और प्रत्येक यात्रा के दौरान उन्हें एक महत्वपूर्ण दृश्य देखने को मिला।

सर्व प्रथम उसका सामना एक बहुत बूढ़े आदमी से हुआ - उदासी से भरा हुआ वह तेजहीन व्यक्ति एक छड़ी पर झुका हुआ खड़ा था। इसके बाद उन्होंने एक रोगग्रस्त व्यक्ति को देखा जो अत्यंत दयनीय अवस्था में रास्ते में पड़ा हुआ था। फिर उन्होंने एक लाश देखी और अंत में एक शीश मुंडाए हुए, हाथ में भिक्षापात्र लिए, पीले रंग के वस्त्र पहने एक साधु को देखा। पहले तीन दृश्यों को देखकर वे करुणा से अब्भिभूत हो गए और उन्हें एहसास हुआ कि जीवन बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु के अधीन है। चौथे दृश्य ने उन्हें इन स्थितियों पर काबू पाने की संभावना का ओर संकेत दिया और उन्हें पीड़ा का समाधान खोजने के लिए अपनी सांसारिक दुनिया को छोड़ने के लिए प्रेरित किया।

निकोलस शेवेलियर द्वारा लिखी पुस्तक बुद्धास रीनंनसिएशन (१८८४)

संन्यास

महल लौटते समय उन्हें अपने बेटे के जन्म की खबर मिली, जिसका नाम उन्होंने राहुल या "बाधा" रखा। उस रात उन्होंने अपने सारथी को अपने पसंदीदा घोड़े कंथक पर काठी कसने का आदेश दिया और शहर छोड़ने का निश्चय किया। शहर छोड़ने से पहले वह अपनी सोती हुई पत्नी और बेटे को देखने के लिए शयनकक्ष में गए और उनसे विदाई ली। फिर वह घर से निकल गए, पूरी रात यात्रा करने के बाद उन्होंने सुबह होने पर उसने एक तपस्वी का भेष धारण किया, कपड़े बदले, और सारथी को अपने पिता के महल में वापिस भेज दिया।

इस प्रकार गौतम ने एक भ्रमणशील भिक्षु का जीवन शुरू किया। ज्ञान पाने की इच्छा लिए वे एक विद्वान शिक्षक की तलाश में निकल पड़े। वे विभिन्न शिक्षकों से मिले और उनके शिक्षाएं प्राप्त कीं। परन्तु इससे उन्हें संतुष्टि नहीं हुई। असंतुष्ट और बेचैन गौतम एक ऐसे स्थायी सत्य की खोज में थे जो दुनिया की मोह माया से परे हो।

मगध देश में यात्रा करते समय उनका सुंदर चेहरा और बलिष्ठ काया आकर्षण का केन्द्र थी। उरुवेला के पास सेनानिगामा नामक गांव में वे पांच तपस्वियों के एक समूह से मिले। इन पांच तपस्वियों में कोंडान्या नामक एक ब्राह्मण था, जिसने आगे चलकर जिसने गौतम के बुद्धत्व की भविष्यवाणी की थी।

लगभग छह वर्षों तक गौतम ने इस स्थान पर रहकर कठोर तपस्या की, जिसका वर्णन उन्होंने अपनी ग्रन्थ मज्जिमा निकाय में किया है।

पोषण की कमी के कारण मेरे बाजू और टाँगे सूखकर गांठदार जोड़ों वाली मुरझाई हुई लताओं की तरह हो गए;... मेरी आँखें अंदर धंस गयीं, वे ऐसी प्रतीत होती थी मानों किसी गहरे कुएँ के तल पर पानी चमकता हुआ दिखाई देता है;... मेरे पेट की त्वचा मेरी रीढ़ की हड्डी से चिपकी हुई प्रतीत होती थी...[1]

गौतम इतने कमजोर हो गए थे कि एक वे बार बेहोश हो गए, इतना कि उन्हें मृत मान लिया गया। कुछ वृत्तांतों के अनुसार वे एक चरवाहे को नीचे पड़े मिले, और चरवाहे ने उन्हें गर्म दूध की कुछ बूंदें पिला कर ठीक किया। कुछ अन्य लोग कहते हैं कि उन्हें देवताओं ने पुनर्जीवित किया था। इसके बाद गौतम को तपस्या की निरर्थकता समझ आ गई और उन्होंने स्वयं आत्मज्ञान का मार्ग खोजने का निर्णय किया। उन्होंने तपस्या के मार्ग का त्याग कर दिया जिसके फलस्वरूप उनके पांच साथियों ने उन्हें त्याग दिया।

बोधि वृक्ष

भारत के बोधगया में महाबोधि मंदिर, बाईं ओर वह वृक्ष है जिसके नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था।

एक दिन एक ग्रामीण की बेटी सुजाता ने उन्हें चावल का दूध खिलाया - "यह भोजन इतना अद्भुत था ... कि मेरे भगवान (गौतम) को अपने अंदर शक्ति और स्फूर्ति महसूस हुई, उपवास के दिन मानों एक सपने थे।"[2] वे फिर वहीँ पर बोधि वृक्ष (जो ज्ञानोदय को दर्शाता है) के नीचे बैठ गए और तब तक वहीँ बैठे रहे जब तक कि उन्हें पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो गई। इस स्थान को अब इममूवेबल स्पॉट (अचल स्थान) के रूप में जाना जाता है।

उस समय एक दुष्ट व्यक्ति मारा ने उनको रोकने के कई प्रयास किये, उन्हें कई तरह के प्रलोभन भी दिए - ये प्रलोभन उसी प्रकार के थे जिस प्रकार शैतान ने जंगल में उपवास के दौरान ईसा को दिए थे।

धम्मपद में मारा के वो शब्द दर्ज हैं जो उसने तब गौतम को कहे थे: “दुबला, पीड़ित, बीमार आदमी, जियो! मौत तुम्हारी पड़ोसी है। मौत के हज़ार हाथ हैं, तुम्हारे पास केवल दो हैं। जियो! जियो और अच्छा करो, पवित्रता से जियो और इनाम का स्वाद लो। संघर्ष क्यों करते हो? संघर्ष कठिन है, हर समय संघर्ष करना कठिन है।”

बिना किसी हलचल के गौतम बोधि वृक्ष के नीचे बैठे रहे और दूसरी तरफ मारा ने अपना हमला जारी रखा - पहले इच्छा के रूप में, उसके सामने कामुक देवी और नृत्य करने वाली लड़कियों की परेड की; फिर मौत की आड़ में, तूफान, मूसलाधार बारिश, धधकती चट्टानों, उबलती मिट्टी से उस पर हमला किया; फिर भयंकर सैनिकों और जानवरों का हमला और अंत में पूर्ण अंधकार। परन्तु गौतम फिर भी अविचल रहे।

मारा ने फिर एक अंतिम बार कोशिश की - उसने सिद्धार्थ के ध्यान लगाने के अधिकार को चुनौती दी। तब सिद्धार्थ ने अपने दाहिने हाथ से पृथ्वी को थपथपाया,[3] तब पृथ्वी ने गरजकर उत्तर दिया: “मैं तुम्हारी गवाही देती हूं!” फिर भगवान के सभी यजमानों और सृष्टि देवों ने धरती माँ के साथ हामी भरते हुए सिद्धार्थ की ज्ञान के मार्ग पर आगे बढ़ने के संकल्प की सराहना की। इसके बाद मारा भाग गया।

मारा को पराजित करने के बाद गौतम ने बाकी की रात पेड़ के नीचे गहन ध्यान में बिताई, उन्होंने अपने पूर्व अवतारों को याद किया, “अलौकिक दिव्य नेत्र” (प्राणियों के निधन और पुनर्जन्म को देखने की क्षमता) प्राप्त की, और चार श्रेष्ठ सत्यों का एहसास किया। उनके कहा: “अज्ञान दूर हो गया, ज्ञान उत्पन्न हुआ। अंधकार दूर हो गया, प्रकाश का उदय हुआ”। <ref। एडवर्ड जे थॉमस, “द लाइफ ऑफ़ बुद्धा अस लीजेंड एंड हिस्ट्री” (न्यूयॉर्क: अल्फ्रेड ए नोफ, १९२७) क्लेरेन्स एच हैमिल्टन, एड., बुद्धिसिम: अ रिलिजन ऑफ़ इनफिनिट कम्पैशन (न्यूयॉर्क: द लिबरल आर्ट्स प्रेस, १९५२), पृष्ठ संख्या २२-२३</ref> से उद्धृत।

इस प्रकार लगभग 528 बी.सी. में मई महीने की पूर्णिमा की रात को उन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई, जागृति मिली। उसका पूर्ण अस्तित्व रूपांतरित हो गया और वह बुद्ध बन गए।

इस घटना का ब्रह्मांडीय महत्व था। धरती पर चारों तरफ आनंदमय वातावरण था, मानों प्रकृति अंगड़ाइयां ले रही हो। हर तरफ खुशनुमा माहौल था, प्रकृति के छटा देखते ही बनती ही - लहलहाते हुए पेड़, फूलों से लदे पौधे हवा में एक मनमोहक सुगंध बिखेर रहे थे मानो सारा ब्रह्माण्ड अपनी प्रसन्नता ज़ाहिर कर रहा हो।[4]

उनतालीस दिनों तक बुद्ध गहरे उत्साह में डूबे रहे, इसके बाद उन्होंने अपना ध्यान फिर से दुनिया की ओर लगाया। उन्होंने देखा मारा उनके लिए एक आखिरी प्रलोभन लिए खड़ा था: “आपके अनुभव को शब्दों में कैसे अनुवादित किया जा सकता है? निर्वाण को लौटें। अपना संदेश दुनिया तक पहुंचाने की कोशिश मत कीजिये क्योंकि कोई भी इसे समझ नहीं पाएगा। आप अपने आनंद में रहिये।” उत्तर में बुद्ध ने कहा, “कुछ लोग तो ज़रूर होंगे जो समझेंग।” इसके बाद मारा उनके जीवन से हमेशा के लिए गायब हो गया।

शिक्षा

सारनाथ (भारत)का स्तूप, यह उस स्थान को चिह्नित करता है जहां गौतम ने अपना पहला उपदेश दिया था

अब बुद्ध यह विचार करने लगे कि उन्हें सबसे पहले किसे शिक्षा देनी चाहिए। फिर उन्होंने उन पाँच तपस्वियों के पास लौटने का निर्णय लिया जो उन्हें छोड़कर चले गए थे। इसके बाद लगभग एक सौ मील से अधिक की यात्रा कर के वे बनारस पहुंचे और उन्होंने अपने पांच पुराने साथियों को अपना पहला उपदेश दिया, जिसे धम्मचक्कप्पवत्तन-सुत्त, या “सत्य के पहिये को गति देना” के नाम से जाना जाता है।

इस उपदेश में उन्होंने अपनी मुख्य खोज - चार श्रेष्ठ सत्य, अष्टांगिक मार्ग और मध्य मार्ग का खुलासा किया। बुद्ध ने उन पाँचों को अपने वर्ग के सबसे पहले सदस्यों - भिक्षुओं - के रूप में स्वीकार किया। कोंडाना इस शिक्षण को समझने वाले पहले व्यक्ति थे।

पैंतालीस वर्षों तक गौतम ने भारत की धूल भरी सड़कों पर घूम-घूमकर धम्म (सार्वभौमिक सिद्धांत) का प्रचार किया, जिससे बौद्ध धर्म की स्थापना हुई। उन्होंने संघ (समुदाय) की स्थापना की, जिसमें जल्द ही बारह सौ से अधिक अनुयायी हो गए, जिसमें उनका पूरा परिवार भी शामिल था - उनके पिता, चाची, पत्नी और बेटा। जब लोगों ने उनसे उनकी पहचान के बारे में सवाल किया, तो उन्होंने जवाब दिया, “मैं जागृत हूं" - इसलिए, बुद्ध हूँ, बुद्ध का अर्थ है “प्रबुद्ध व्यक्ति” या “जागृत व्यक्ति।”

महासमाधि

अस्सी वर्ष की आयु में, गौतम गंभीर रूप से बीमार हो गए; परन्तु होने दृढ संकल्प से उन्होंने मृत्युशय्या से स्वयं को पुनर्जीवित कर लिया, यह सोचकर कि अपने शिष्यों को तैयार किए बिना शरीर का त्याग करना सही नहीं होगा। ठीक होने के बाद उन्होंने अपने चचेरे भाई आनंद - जो कि उनका करीबी शिष्य भी था - को निर्देश दिया कि इस वर्ग को एक द्वीप की तरह बनकर रहना चाहिए - अपना आश्रय स्वयं बनना चाहिए और धम्म को अपना द्वीप, चिरकालीन आश्रय बनाकर रखना चाहिए।

उन्होंने यह घोषणा भी करी कि वे तीन महीने बाद अपना शरीर त्याग देंगे। यह घोषणा करने के बाद उन्होंने कई गांवों की यात्रा की और फिर अपने समर्पित अनुयायियों में से एक, कुंडा (जो पेशे से सुनार था), के साथ रहने लगे। उस समय की परंपरा के अनुसार, कुंडा ने गौतम को सुकर-मद्दव खाने के लिए आमंत्रित किया। सुकर-मद्दव एक व्यंजन है जो उन्होंने अनजाने में ही जहरीले मशरूम के साथ तैयार किया था। भोजन के बाद, गौतम बुरी तरह बीमार हो गए, लेकिन उन्होंने बिना किसी शिकायत के अपना दर्द सह लिया।

मगर उन्हें यह चिंता थी कि कुंडा को कैसे समझाया जाए, क्योंकि वो शायद इस बात के लिए स्वयं को जिम्मेदार महसूस करेगा। इसलिए उन्होंने आनंद को कहा कि वह कुंडा को यह बताये की उनके पूरे जीवन में जो भी भोजन उन्होंने खाया है उनमें से केवल दो ही विशेष आशीर्वाद के रूप में सामने आए हैं - एक जो सुजाता ने उन्हें खिलाया था और दूसरा जो कुंडा ने। सुजाता के भोजन से उनका ज्ञानोदय हुआ और कुंडा के भोजन ने उनके लिए पारगमन के द्वार खोले थे।

४८३ बी सी में मई की पूर्णिमा के दिन बुद्ध ने महासमाधि ली। इससे पहले उन्होंने एक बार फिर आनंद को समझाया कि जीवन में सदा धम्म - सत्य - का ही स्वामित्व होना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि भिक्षुओं को यह ध्यान रखना चाहिए की सभी सांसारिक वस्तुएं क्षणभंगुर हैं।

विरासत

गौतम के जाने के बाद, बौद्ध धर्म दो प्रमुख दिशाओं में विकसित होना शुरू हुआ, जिसके फलस्वरूप हीनयान (“छोटा वाहन”) और महायान (“महान वाहन”) संप्रदायों की स्थापना हुई। बाद में इनसे कई और उपसमूह विकसित हुए।

हीनयान सम्प्रदाय के अनुयायियों का मानना ​​है कि उनकी शिक्षाएँ गौतम द्वारा सिखाए गए मूल बौद्ध सिद्धांतों का प्रतिनिधित्व करती हैं, और इसलिए वे इस मार्ग का उल्लेख थेरवाद, या “बुजुर्गों का मार्ग” के रूप में करते हैं।

पारंपरिक दृष्टि से थेरवाद मठ में रहनेवालों की जीवन शैली पर केंद्रित है , यह दूसरों की मदद करने के लिए आत्म-बलिदान और व्यक्तिगत ज्ञान की आवश्यकता पर जोर देता है। उनका लक्ष्य एक अर्हत - सिद्ध शिष्य - बनना और निर्वाण प्राप्त करना है।

महायान के अनुयायी मानते हैं कि थेरवाद के नियमों का कड़ाई से पालन करना बुद्ध की सच्ची भावना के परे है। ये बुद्ध के जीवन का अनुकरण करने पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं; इनका कहना है कि आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए अच्छे कार्य करने चाहिए और दूसरों के प्रति करुणा भाव रखना चाहिए। दूसरी ओर थेरवादियों का दावा है कि महायानवादियों के उदार सिद्धांतों के कारण गौतम की शुद्ध शिक्षाएं प्रदूषित हो गई हैं।

महायान के अनुयायी अपने सम्प्रदाय को "बड़ा" मानते हैं, क्योंकि उनका कहना है ये आम आदमी के अधिक अनुकूल है। इनका आदर्श एक बोधिसत्व बनना है - एक ऐसा ज्ञानी जो निर्वाण प्राप्त करने के बाद भी स्वेच्छा से उसी लक्ष्य को प्राप्त करने में दूसरों की सहायता करने के लिए दुनिया में लौटता है।

आज के सन्दर्भ में गौतम का कार्य

गौतम बुद्ध सनत कुमार के अधीन सेवा करने की दीक्षा लेनेवाले पहले व्यक्ति थे, इसलिए उन्हें विश्व के भगवान के पद पर सनत कुमार के उत्तराधिकारी के रूप में चुना गया। १ जनवरी, १९५६ को सनत कुमार ने अपना दायित्व भगवान गौतम को सौंप दिया, जिसके बाद महान गुरु के उत्कृष्ट चेला भी शंबाल्ला के प्रमुख बन गए।

आज गौतम बुद्ध विश्व के भगवान का पद संभाल रहे हैं (११:४ रेवेलशन में उन्हें "पृथ्वी का भगवान" कहा गया है)। आंतरिक स्तर पर वह पृथ्वी पर ईश्वर के सभी बच्चों के लिए जीवन की त्रिदेव ज्योत को बनाए रखते हैं।

गौतम बुद्ध के महान कार्यों का ज़िक्र करते हुए, १ जनवरी १९८६ को मैत्रेय ने कहा था:

विश्व का स्वामी अपने हृदय से निकलती, ज़रदोज़ी के सामान चमकती हुई रौशनी द्वारा पृथ्वी पर विभिन्न जीवों के विकास हेतु त्रिदेव ज्योत को बनाए रखता है। यह मनुष्य के कर्म को भी दरकिनार करता है जिसकी वजह से उसके हृदय के चारों ओर इतना कालापन हो जाता है कि आध्यात्मिक धमनियाँ या पवित्र प्रकाश की डोर कट जाती है।

जब ऐसा होता है तब भौतिक शरीर की धमनियों में अत्यधिक मलबा भर जाता है और रक्त के प्रवाह का क्षेत्र बहुत कम हो जाता है। इस स्थिति में हृदय जीवन को बनाए रखने में असमर्थ हो जाता है। इस बात की तुलना हम सूक्ष्म स्तर पर होने वाली घटनाओं के साथ कर सकते हैं।

सनत कुमार जीवन की लौ को बनाए रखने के लिए पृथ्वी पर आए थे। और इसी तरह गौतम बुद्ध भी इस त्रिदेव ज्योत शंबाल्ला में रखते हैं, और वह हर जीवित हृदय का हिस्सा हैं। जैसे-जैसे शिष्य आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ता है, वह समझ जाता है कि उसके जीवन का लक्ष्य अपने अच्छे कर्मों द्वारा त्रिदेव ज्योत का इतना विकास करना है की उसे गौतम बुद्ध की त्रिदेव ज्योत इस आवश्यकता न पड़े, और वह स्वयं अपनी जीवात्मा और चेतना को बनाये रखे।

यह कदम अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है और इसे पृथ्वी ग्रह पर बहुत कम लोग ही हासिल कर पाए हैं। आपको कोई अंदाजा नहीं है कि अगर गौतम बुद्ध आपको अपनी त्रिदेव ज्योत का सहारा ने दें तो क्या होगा ? अधिकांश लोग, विशेष रूप से युवा, इस बात पर ध्यान नहीं देते कि जिस उत्साह और आनंद का वे अनुभव करते हैं, उसका स्रोत क्या है।

गौतम बुद्ध ने ३१ दिसंबर, १९८३ को स्वयं इस उपहार के बारे में बात की थी:

मैं बहुत ध्यान रखने वाला हूं। मैं अपनी त्रिदेव ज्योत के माध्यम से आपके हृदय की तेदेव ज्योत लौ के साथ संपर्क बनाये रखता हूं और आपकी ज्योत को पोषित भी करता हूँ। ऐसा मैं तब तक करता हूँ जब तक की आपकी जीवात्मा स्वाधिष्ठान चक्र से ऊपर उठकर ह्रदय के गुप्त कक्ष में प्रवेश नहीं कर लेती। ऐसा होने पर आप स्वयं अपनी त्रिदेव ज्योत का पोषण करने में सक्षम हो जाते हैं।

क्या यहाँ कभी किसी को याद आया कि उसने जन्म के समय अपनी त्रिदेव ज्योत स्वयं प्रज्वलित की थी? क्या यहां कभी किसी को इसकी ज्वाला को संभालने या इसे जलाए रखने की याद आई है? आप इस बात को समझिये कि प्रेम, वीरता, सम्मान और निस्वार्थता के कार्य निश्चित रूप से इस लौ को बढ़ाने में योगदान देते हैं। लेकिन एक ऊपरी शक्ति, एक ऊपरी स्रोत उस लौ को तब तक बनाए रखती है जब तक आप स्वयं उस ऊपरी शक्ति, अपनी स्व चेतना के साथ एकीकृत नहीं हो जाते।

इसलिए मैं सभी को अपने हृदय से प्रेरणा और प्रोत्साहन देता हूँ। एक बात और है - जैसे ही ईश्वर का प्रकाश मेरे माध्यम से होता हुआ आपके पास आता है, मैं आपके रोजमर्रा के जीवन के बारे में बहुत सी चीजें जान जाता हूँ, ऐसे बातें भी जो आप समझते हैं कि अत्यंत व्यस्त होने के कारण ईश्वर नहीं जान पाएंगे, बातें जो ईश्वर के ध्यान से परे रहेंगी।

वास्तव में मुझे सब पता है। मैं आध्यात्मिक उत्थान के पथ पर चलने वाले माता-पिता, परिवारों, समुदायों और विद्यालयों से अनभिज्ञ नहीं हूँ। क्योंकि यह सुनिश्चित करना मेरा प्राथमिक काम है कि पृथ्वी का हर निवासी दीक्षा के मार्ग पर चले, और ईसा मसीह और मैत्रेय के हृदय की ओर अग्रसर हो।

आश्रयस्थल

मुख्य लेख: शंबाला

मुख्य लेख: पश्चिमी शंबाला

गौतम बुद्ध समिट यूनिवर्सिटी के प्रायोजक हैं, और गोबी रेगिस्तान के ऊपर स्थित विश्व के भगवान के आकाशीय आश्रय स्थल, शंबाला के प्रमुख हैं।

१९८१ में गौतम ने रॉयल टेटन रेंच में हार्ट ऑफ़ द इनर रिट्रीट के ऊपर आकाशीय स्तर में, इस रिट्रीट का एक विस्तार स्थापित किया, जिसे पश्चिमी शंबाला कहा जाता है।

गौतम बुद्ध का मूल राग “मूनलाइट एंड रोज़ेज़” है। बीथोवेन की नौवीं सिम्फनी का “ओड टू जॉय” विश्व के भगवान के साथ हमारा प्रत्यक्ष सामंजस्य स्थापित करता है।

इसे भी देखिये

तथागत

स्रोत

Pearls of Wisdom, vol. २६, no. ४, २३ जनवरी १९८३.

Pearls of Wisdom, vol. ३२ , no. ३० , २३ जुलाई १९८९.

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, The Masters and Their Retreats, s.v. “गौतम बुद्ध”

Elizabeth Clare Prophet, Inner Perspectives.

  1. एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका, १५वां संस्करण, एस.वी. "बुद्ध।"
  2. एडविन अर्नोल्ड, द लाइट ऑफ एशिया (लंदन: केगन पॉल, ट्रेंच, ट्रबनेर एंड कंपनी, १९३०), पृष्ठ संख्या ९६.
  3. “पृथ्वी-स्पर्शी मुद्रा” के साथ। उन्होंने बायां हाथ हथेली ऊपर कर अपनी गोद में रखा और दाहिने हाथ को नीचे की ओर करके धरती को छूआ।
  4. हूस्टन स्मिथ, "द रेलीजस ऑफ़ मेन" (न्यूयोर्क: हार्पर एंड रौ, हार्पर कोलोफॉन बुक्स, १९५८) पृष्ठ ८४