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Elizabeth Clare Prophet, December 31, 1972; June 29, 1988.
एलिज़ाबेथ क्लेयर प्रोफेट, ३१ दिसंबर १९७२; २९ जून १९८८


Elizabeth Clare Prophet, “Prophecy for the 1990s III,{{POWref|33|8|, February 25, 1990}}
एलिज़ाबेथ क्लेयर प्रोफेट, "प्रोफेसीस फॉर द नाइनटीस III," {{POWref|३३|| २५ फरवरी, १९९०}}


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निम्नलिखित लेखों की श्रृंखला का हिस्सा
ब्रह्मांडीय कानून



ब्रह्मांडीय कानून



पत्राचार का कानून
कालचक्र का कानून
क्षमा याचना का कानून
कर्म
सृष्टि के एकरूप होने का कानून
सामान्य से परे होनेवाले अनुभवों का कानून
 

[यह संस्कृत शब्द कर्मण, कर्म, "कार्य," से लिया गया है] ऊर्जा/चेतना का कार्य; कारण और उसके प्रभाव का कानून, प्रतिशोध का कानून. इसे चक्रिक नियम भी कहते हैं - इसका मतलब है जो भी कार्य हम करते हैं उनका फल एक दिन हमारे सामने ज़रूर आता है।

पॉल ने कहा है: "मनुष्य जो कुछ बोएगा, वही काटेगा।"[1] न्यूटन के अनुसार: "प्रत्येक क्रिया की एक प्रतिक्रिया होती है जोकि क्रिया के बराबर होती है।"

कर्म का सिद्धांत आत्मा के पुनर्जन्म को तब तक आवश्यक बनाता है जब तक कि सभी कर्म संतुलित नहीं हो जाते। इस प्रकार, पृथ्वी पर विभिन्न जन्मों में मनुष्य अपने कार्यों, विचारों, भावनाओं, शब्दों और कर्मों से अपना भाग्य निर्धारित करता है।

उत्पत्ति

कर्म ईश्वर की चलायमान ऊर्जा है। ईश्वर के मन में उत्पन्न होने वाली, ऊर्जा ---- क्रिया-प्रतिक्रिया-पारस्परिक क्रिया ---- लोगोस की त्रिमूर्ति है। ईश्वर के मन का रचनात्मक बलक्षेत्र कर्म का स्रोत है।

सदियों से कर्म शब्द का उपयोग मनुष्य की कार्य-कारण संबंधी अवधारणाओं, ब्रह्मांडीय कानून और उस कानून के साथ उसके संबंध को परिभाषित करने के लिए किया जाता रहा है। शब्द आत्मा से पदार्थ तक के प्रवाह को नियंत्रित करने वाली ऊर्जा की एक कुंजी है। दिव्यगुरूओं के अनुसार कर्म मूलतः लेमुरिया सभ्यता का शब्द है, जिसका अर्थ है - किरण के कारण की अभिव्यक्ति।

कर्म ही ईश्वर है; कर्म ही ईश्वर के कानून, सिद्धांत और इच्छा को पालन करने का साधन है। जब आत्मा का मिलन ईश्वर की इच्छा, बुद्धि और प्रेम के साथ होता है तो आत्मा भौतिक (मानव) रूप ग्रहण करती है। नियमानुसार कर्म का पालन करने से ही मनुष्य का अस्तित्व है, कर्म से ही मनुष्य स्वयं को जीत सकता है।

कर्म चक्रीय होता है - भगवान की ब्रह्मांडीय चेतना के क्षेत्र के अंदर प्रवेश करना और बाहर आना - ठीक ऐसे ही जैसी हम सांस लेते हैं - एक अंदर एक बाहर।

आत्मिक पदार्थ ब्रह्मांड के सातों स्तरों पर सारा निर्माण कर्म पर ही निर्भर है। कर्म ही पूरी सृष्टि की धुरी है। सृष्टि और उसके रचयिता के बीच ऊर्जा के प्रवाह का एकीकरण कर्म द्वारा ही होता है। कर्म से ही कारण प्रभाव में बदल जाता है। कर्म पदक्रम की एक महान श्रृंखला है जो अल्फा और ओमेगा की ऊर्जा को स्थानांतरित करती है।

ईश्वर का कर्म

मुख्य लेख: ईश्वर

"सृष्टि के शुरुआत में ईश्वर ने स्वर्ग और पृथ्वी की रचना की" - और इसी के साथ क्रिया-प्रतिक्रिया-पारस्परिक क्रिया का भी प्रारम्भ हुआ। ईश्वर प्रथम कारण थे और उन्होंने प्रथम कर्म बनाया। स्वेच्छा से सृष्टिकर्ता और सृष्टि दोनों को बनाकर ईश्वर ने अपनी ऊर्जा की अविनाशी गति (कर्म) को चलायमान किया, और ब्रह्माण्ड में कर्म के नियमों को स्थायी कर दिया। सृष्टि की रचना ईश्वर का कर्म है। ईश्वर के पुत्र और पुत्रियां जीवंत ईश्वर (मनुष्य) का कर्म है।

ईश्वर का कर्म आत्मा और पदार्थ के बीच उत्कृष्ट सामंजस्य के रूप में दिखता है। ईश्वर का कर्म उनकी गतिमान ऊर्जा के नियमों का पालन करता है। इसे हम उनकी इच्छा के परिवहन के रूप में देख सकते हैं जिससे विभिन्न प्रकार की शक्तियां उत्पन्न होती है। ईश्वर का कर्म इन सभी ब्रह्मांडीय शक्तियों में तादात्म्य स्थापित करना है।

स्वतंत्र इच्छा और कर्म

चाहे मनुष्य हो या ईश्वर, स्वतंत्र इच्छा के बिना कोई कर्म नहीं हो सकता। इसका अर्थ यह हुआ कि स्वतंत्र इच्छा पवित्र आत्मा की एक शाखा है जो किरण के कारण को दर्शाती है। स्वतंत्र इच्छा एकीकरण के नियम का मूल बिंदु है। केवल ईश्वर और मनुष्य ही कर्म बनाते हैं, क्योंकि इन्ही दो के पास स्वतंत्र इच्छा है। अन्य सभी प्राणी - सृष्टि देव, देवी देवता और देवदूत - भगवान और मनुष्य की इच्छा को पूरा करने के साधन हैं। और इसी वजह से वे भगवान और मनुष्य के कर्म के उपकरण हैं।

देवदूतों की स्वतंत्र इच्छा ईश्वर की स्वतंत्र इच्छा है। ईश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए देवदूतों की आवश्यकता होती है। देवदूतों के पास मनुष्य की तरह ईश्वर की ऊर्जा का उपयोग करने की स्वतंत्रता नहीं है। परन्तु देवदूतों के पास अपनी गलतियां सुधारने का अधिकार अवश्य है - अपनी गलतियां सुधार कर वे स्वयं को ईश्वर की इच्छा और ऊर्जा के साथ पुनः जोड़ सकते हैं।

कभी कभी देवदूत ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध विद्रोह कर देते हैं परन्तु यह विद्रोह मनुष्य की स्वतंत्र इच्छा के फलस्वरूप हुए कर्म-निर्माण से अलग है। ईश्वर के कानून के अंतर्गत अपनी स्वतंत्र इच्छा का उपयोग करके मनुष्य अपने ईश्वरीय स्वरुप को पुनः प्राप्त कर सकता है। मनुष्य अपनी स्वतंत्र इच्छा का विभिन्न रूप से प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र है, क्योंकि उसमें ईश्वर बनने की क्षमता है।

वहीँ दूसरी ओर, यदि देवदूत - जिनका काम केवल ईश्वर की स्वतंत्र इच्छा को पूरा करना है - ईश्वर की इच्छा का विरोध करते हैं, तो वे अपने उच्च स्थान से निष्कासित हो जाते हैं। ऐसे देवदूतों को मनुष्य जीवन लेना होता है।

मानवजाति देवदूतों के अपेक्षा निम्न स्थान पर है। इसलिए जब मनुष्य नकारात्मक कर्म करता है, तो वह अपने स्थान पर रहकर ही उन्हें संतुलित करता है। लेकिन ईश्वर की इच्छा का विरोध करने वाला देवदूत अपने उच्च स्थान से हटा दिया जाता है - उसे अपनी ऊर्जा को संतुलित करने के लिए मानजाति में भेज दिया जाता है।

हिन्दू शिक्षण

हिंदू धर्म में संस्कृत शब्द कर्म (जिसका अर्थ कार्य, काम या कृत्य है) उन कार्यों के बारे में बताने के लिए किया जाता है जो आत्मा को अस्तित्व की दुनिया से बांधते हैं। महाभारत में कहा गया है, "जैसे एक किसान एक निश्चित प्रकार के बीज से एक निश्चित फसल प्राप्त करता है, वैसे ही यह अच्छे और बुरे कर्मों के साथ होता है," [2] एक हिंदू महाकाव्य। क्योंकि हमने अच्छाई और बुराई दोनों बोई है, हमें फसल काटने के लिए वापस लौटना होगा।

हिंदू धर्म के अनुसार है कि कुछ जीवात्माएं पृथ्वी पर अपने जीवन से संतुष्ट रहती हैं। वे सुख-दुख, सफलता-विफलता के मिश्रण के साथ पृथ्वी पर जीवन का आनंद लेती हैं। अपने अच्छे और बुरे कर्मों का हिसाब करते हुए वे इस जीवन-मरण के चक्र में फंसे रहना पसंद करती हैं।

लेकिन जो लोग जन्म-मृत्यु की चक्र से थक गए हैं और भगवान के साथ मिलना चाहते हैं उनके लिए एक रास्ता है। जैसा कि फ्रांसीसी उपन्यासकार होनोर डी बाल्ज़ाक ने कहा, "हम अपना प्रत्येक जीवन ईश्वर के प्रकाश तक पहुँचने के लिए जीएं। मृत्यु जीवात्मा की यात्रा का एक पड़ाव है।" [3]

जब जीवात्मा अपने स्रोत पर (ईश्वर के पास) लौटने का निर्णय कर लेती है तो उसका लक्ष्य खुद को अज्ञानता और अंधकार से मुक्त करना होता है। इस प्रक्रिया में कई जन्म लग सकते हैं। महाभारत में जीवात्मा की शुद्धिकरण की प्रक्रिया की तुलना सोने को परिष्कृत करने की प्रक्रिया से की गई है - जिस प्रकार सुनार धातु को शुद्ध करने के लिए बार-बार आग में डालता है वैसे ही स्वयं को शुद्ध करने के लिए जीवात्मा को बार बार पृथ्वी पर आना पड़ता है। महाभारत हमें यह भी बताती है कि कुछ जीवात्माएं अपने "शक्तिशाली प्रयासों" द्वारा एक ही जीवन में स्वयं को शुद्ध कर लेती है, लेकिन अधिकांशतः को इस कार्य में "सैकड़ों जन्म" लग जाते हैं। [4] पूरी तरह से शुद्ध होने पर आत्मा पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो परब्रह्म के साथ मिल जाती है। आत्मा "अमर हो जाती है।"[5]

बौद्ध शिक्षण

बौद्ध धर्म के अनुयायी पुनर्जन्म के चक्र को एक पहिये के रूप में देखते हैं - एक ऐसा पहिया जिससे हम तब तक बंधे रहते हैं जब तक कि हम कर्म की जंजीरों को तोड़ नहीं देते। बौद्ध धर्म के संस्थापक सिद्धार्थ गौतम (सी. ५६३-सी. ४८३ बी सी) ने एक हिंदू के रूप में जीवन शुरू किया था। उन्होंने हिन्दू धर्म से कर्म और पुनर्जन्म के बारे ज्ञान प्राप्त किया और फिर उसका अध्ययन और विस्तार किया।

बौद्ध धर्म के एक प्रसिद्द ग्रन्थ, धम्मपद, में कर्म की व्याख्या इस प्रकार की गई है: “हमारा आज का अस्तित्व हमारे कल के विचारों के कारण हैं, और हमारा भविष्य हमारे आज के विचारों पर निर्भर है। हमारा पूरा जीवन हमारे दिमाग की ही रचना है। यदि कोई मनुष्य गलत शब्द बोलता है या गलत कार्य करता है, तो दुख उसका उसी प्रकार पीछा करता है, जैसे गाड़ी का पहिया गाड़ी खींचने वाले का। इसके विपरीत जो मनुष्य अच्छा बोलता है और अच्छे कार्य करता है आनंद उसकी परछाई की तरह उसका अनुसरण करता है। ”[6]

कर्म और भाग्य

अक्सर हम कर्म शब्द का प्रयोग भाग्य के एवज़ में करते हैं । लेकिन यह सत्य नहीं। कर्म में विश्वास भाग्यवाद नहीं है। हिंदु धर्म के अनुसार, अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के कारण वर्तमान जीवन में हम में कुछ विशेष प्रवृत्तियां या आदतें हो सकती है, परन्तु हम उन विशेषताओं के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य नहीं। कर्म स्वतंत्र इच्छा को नहीं नकारता।

पश्चिमी देशों में हिंदू धर्म को बढ़ावा देने वाली संस्था वेदांत सोसाइटी के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के पास दो विकल्प होते हैं: या तो वह अपनी प्रवृत्ति का अनुसरण करे या फिर उसके विरुद्ध संघर्ष।[7] द इनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ ईस्टर्न फिलोसोफी एंड रिलिजन में लिखा है कि कर्म नियतिवाद का गठन नहीं करता। "कर्म पुनर्जन्म के तरीके को अवश्य निर्धारित करते हैं, लेकिन नए जन्म में उसके द्वारा किये जाने वाले काम नहीं - अतीत में किये गए कर्मों के कारण आपके जीवन में विभिन्न परिस्थितियां पैदा होती हैं, पर उस परिस्थिति में आपकी प्रतिक्रिया पुराने कर्म पर निर्भर नहीं ।"[8]

बौद्ध धर्म इस बात से सहमत है। गौतम बुद्ध ने हमें बताया है कि कर्म को समझने से हमें अपना भविष्य बदलने का अवसर मिलता है। उन्होंने अपने एक समकालीन शिक्षक मक्खलि गोसाला - जो ये कहते थे कि मनुष्य के कर्म का उसके भाग्य पर कोई असर नहीं होता और जन्म-मृत्यु के चक्र से छुटकारा एक सहज प्रक्रिया है - को चुन्नोती दी थी। बुद्ध के अनुसार भाग्य या नियति में विश्वास करना खतरनाक है।

उन्होंने बताया कि स्वयं को अपरिवर्तनीय भाग्य के हवाले करने की अपेक्षा पुनर्जन्म हमें अपने भविष्य को बदलने में सहायता करता है। वर्तमान में किये अच्छे कर्म एक खुशहाल भविष्य का निर्माण करते हैं। धम्मपद में कहा गया है, “जब एक आदमी - जो लंबे समय से अपने परिवार से दूर है - वापिस लौटता है तो उसके रिश्तेदार, शुभचिंतक और दोस्त खुशी के साथ उसका स्वागत करते हैं, ठीक उसी प्रकार एक जीवन किये गए अच्छे कर्म दूसरे जीवन में उन कर्मों का शुभ फल देते हैं। [9]

हिंदु और बौद्ध धर्म को मानने वाले लोगों का विश्वास है कि मनुष्य के कर्म ही उसके पुनर्जन्मों का निर्धारण करते हैं - पृथ्वी पर हम तब तक जन्म लेते रहते हैं जब तक कि हम मोक्ष प्राप्त नहीं कर लेते। जीवित रह्ते हुए जीवात्मा का आत्मा के साथ मिलन चरणों में हो सकता है, पर मृत्यु के बाद यह मिलन स्थायी हो जाता है।

कर्म और ईसाई धर्म

मुख्य लेख: बाइबल में कर्म

कर्म का नियम संपूर्ण बाइबल में वर्णित है। धर्मगुरु पॉल ने यह स्पष्ट रूप से बताया है कि उन्होंने ईसा मसीह के जीवन और उनके द्वारा दिए गए ज्ञान से क्या क्या सीखा है:

हर व्यक्ति को अपने कर्मों का लेखा जोखा स्वयं ही देना होता है

धोखे में मत रहना; मनुष्य जो कुछ बोता, उसे वही काटना होता है अर्थात जैसा कर्म वैसा ही फल। वो कहते हैं ना: बोया पेड़ बबूल का तो आजम कहाँ से होये![10]

जो लोग ईश्वर के बताये रास्ते पर चलते हैं, अच्छे कर्म करते हैं, उनके लिए कर्म वरदान और आशीर्वाद लेके आता है। इसलिए "दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करें जैसा कि आप चाहते हैं कि वे आपके साथ करें।"

ईसा मसीह ने कर्म और उसके फल पर काफी ज़ोर दिया है। कर्म के सिद्धांत को समझाने के लिए उन्होंने अपने जीवन से भी कई दृष्टान्त दिए हैं। उन्होंने बुरे कर्म करने वालों को कई चेतावनियां भी दी हैं। उन्होंने कई बार कहा है की अंत में हमारे सभी कर्मों का हिसाब अवश्य होता है। उन्होंने यह भी बताया है कि प्रत्येक व्यक्ति की एक बुक ऑफ लाइफ होती जिसमे उसके सभी कर्म लिखे जाते हैं। मैथ्यू १२:३५-३७ में ईसा मसीह ने फारीसी लोगों और लेखकों को कर्म का सिद्धांत समझाया है।

एक अच्छा व्यक्ति अपने दिल के खजाने से अच्छी चीजें [यानी सकारात्मक कर्म] निकालता है: और एक बुरा आदमी बुरी चीजें [यानी, नकारात्मक कर्म]।

मैं आप सबको ये बताना चाहता हूँ कि अंतिम समय में जब मनुष्य का ईश्वर से सामना होता है तो उसे अपनी कही हर बात का हिसाब देना होता है।

आपके द्वारा कहे गए शब्द ही यह निर्णय करेंगे की आपको सज़ा मिलेगी या मुक्ति

मैथ्यू २५ में ईसा मसीह बताते हैं कि अंतिम निर्णय व्यक्ति के सकारात्मक और नकारात्मक कर्मों पर आधारित होता है। प्रेम से किये गए कार्य (जैसे की बिना कुछ पाने की आशा के किया गया दान) मोक्ष की कुंजी हैं। ईश्वर कहते हैं जो लोग निस्वार्थ भाव से से दूसरों की सेवा करते हैं उन्हें ईश्वर के चरणों में स्थान मिलता है।[11] ईश्वर की इच्छा के विपरीत कार्य करने वालों को ईश्वर कहते हैं, "तुम मुझसे दूर हो जाओ, उस आग,[12] में झुलसो जो शैतानी ताकतों के लिए तैयार की गई है।"[13]

धर्मदूत पॉल ने भी कर्म पर ईसा मसीह की शिक्षा की पुष्टि की है। रोम के लोगों को समझाते हुए वे कहते हैं:

[भगवान] हर एक को उसके कर्मों के अनुसार प्रतिफल देते हैं। जो लोग सदैव भले काम करते हैं उनके लिए जीवन अनंत होता है तथा जो सत्य के रास्ते पर नहीं चलते, गलत कर्म करते हैं उन्हें हमेशा क्रोध और रोष का सामना करना पड़ता है। जो भी व्यक्ति भ्रष्टता का मार्ग अपनाता है उसे असहनीय दर्द का सामना करना पड़ता है और जो सत्य के मार्ग पर चलता है उसे प्रसिद्धि, सम्मान और शांति की प्राप्ति होती है... ईश्वर किसी का का पक्षपात नहीं करते। इंसान को सिर्फ उसके कर्मों का फल मिलता है। [14]

'सरमन ऑन द माउंट' में ईसा मसीह कहते हैं कि कर्म का नियम गणितीय नियमों की तरह सटीक और स्पष्ट है: "आप जिस भाव के साथ निर्णय लेते हैं, उसी भाव के साथ आपका भी न्याय किया जाता है।"[15] मैथ्यू ५-७ में ईसा मसीह ने धार्मिक और अधार्मिक आचरण (विचारों, भावनाओं, शब्दों और हाथों द्वारा किये गए कार्य) के परिणामों के बारे में विस्तृत जानकारी दी है। संभवतः यह कर्म के सिद्धांत पर सबसे बड़ी शिक्षा है, इसमें उन्होंने बताया है कि अपने कर्मों के प्रति हमारी व्यक्तिगत जवाबदेही होती है।

कर्म के स्वामी

मुख्य लेख: कार्मिक बोर्ड

कार्मिक बोर्ड आठ दिव्यगुरुओं की एक संस्था है जो पृथ्वी के प्रत्येक जीव की ज़िम्मेदारी उठाती है। इनका कार्य हर एक जीव को उसके कर्म के अनुसार, दया दिखाते हुए, उचित इन्साफ देना है। ये सभी २४ वरिष्ठ दिव्यात्माओं के अधीन रहते हुए, पृथ्वी के जीवों और उनके कर्मों के बीच मध्यस्तता का काम करते हैं।

कर्म के स्वामी इंसान के व्यक्तिगत कर्म, उनके सामूहिक कर्म, राष्ट्रीय कर्म और सम्पूर्ण विश्व के कर्म के चक्रों का निर्णय करते हैं। ये कानून को सदा उस तरीके से लागू करने का प्रयास करते हैं जिससे लोगों को आध्यात्मिक उन्नति करने के अच्छे अवसर मिलें।

ज्योतिष शास्त्र और कर्म

मुख्य लेख: ज्योतिष शास्त्र

यदि ज्योतिष शास्त्र का अच्छे से अध्ययन किया जाए तो हमें पता चलेगा की यह विद्या कर्म की पुनरावृति के बारे में एकदम सही भविष्यवाणी करती है। इसका प्रयोग करके हम ना सिर्फ व्यक्तियों का वरन संस्थानों, राष्ट्रों और ग्रहों के कर्मो का भी पता लगा सकते हैं - कब कौन सी कठिनाई से सामना होनेवाला है और कब कौन सी सीख हमें मिलने वाली है - इन सब बातों का पता चल सकता है। राशि चक्र का प्रत्येक चिन्ह और प्रत्येक ग्रह हमारे जीवन में गुरु की भूमिका निभा सकता है।

अपना जीवन चक्र (अपने पूर्व कर्मों द्वारा) मनुष्य स्वयं लिखता है। मनुष्य के कर्म उसका भाग्य बनाते हैं, और यही सब ज्योतिषी हमें जन्म कुंडली पढ़ कर बताते हैं। व्यक्ति के पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार कर्म के स्वामी उसके वर्तमान जीवन का क्रम लिखते हैं। इसी के अनुसार व्यक्ति के जीवन में परीक्षा की विभिन्न घड़ियाँ भी आती हैं। किसी भी इंसान का व्यक्तित्व और मनोवृति जन्म-जन्मांतर के उसके कर्मों पर आधारित होती है, और इसी के अनुसार वह अपने जीवन में आनेवाली परीक्षाओं का सामना करता है।

अक्सर हम अपनी कुंडली में लिखी किसी विपरीत परिस्थिति को बुरा कहते हैं - यह भाव हमारी कर्म सम्बन्धी कमज़ोरी को दर्शाता है। जन्म कुंडली हमें बताती है कि विपरीत परिस्थितियां हमारे जीवन में कितना समय तक रहेंगी।

कर्म एक अवसर प्रदान करता है

लोग अक्सर कर्म को भगवान का क्रोध मानते हैं, वे यह सोचते हैं कि वर्तमान का बुरा समय उनके पूर्व में किये गए किसी बुरे कर्म का फल है। यह अवधारणा लूसिफ़ेर जैसे पथभ्रष्ट देवदूतों द्वारा फैलाई गई है।

कर्म सज़ा नहीं है, बल्कि यह पूर्व में कियते गए कर्म को सुधारने का एक अवसर है। हमें इस मौके को गँवाना नहीं चाहिए वरन आनंद के साथ इसका लाभ उठाना चाहिए क्योंकि यह हमारे जीवन के ऋणों को संतुलित करने का मौका है।

यह हमारे लिए स्वतंत्र होने का मौका है, और हमें सिखाता है कि हमें अनासक्त रहना चाहिए और दूसरों के ऊपर अपना अधिकार नहीं जमाना चाहिए। हमें यह समझना होगा कि जो हम देंगे वही हमारे पास लौटकर भी आएगा और इसके लिए हमें तैयार रहना चाहिए। अगर भूतकाल में प्यार देने की भावनाओं को महसूस किया है तो प्यार पाने की भावनाओं का अनुभव भी होना चाहिए। और यदि हमने औरों को घृणा और दुःख दिए हैं तो वह भी हमें अनुभव करने होंगे। हमें कभी भी यह नहीं लगना चाहिए कि हमारे साथ कोई अन्याय हो रहा है।

दुर्भाग्य से कई लोग ईश्वर के कानून को ईश्वर की नाराज़गी समझते हैं, वे समझते हैं ईश्वर ने उन्हें अस्वीकार कर दिया है। वे ईश्वर को सिर्फ एक कानून निर्माता के रूप में देखते हैं जिसका काम हमें गलतियों की सज़ा देना है। परन्तु यह सत्य नहीं है। ईश्वर कभी भी हमारे कर्मों को दण्ड के रूप में नहीं देते। कर्म एक अवैयक्तिक नियम की व्यक्तिगत अभिव्यक्ति है अर्थात यह कानून सबके लिए बराबर है परन्तु प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्म के अनुसार मिलता है। वास्तव में कर्म ही हमारा गुरु है, यह न हो तो हम कुछ सीख ही ना पाएं। जीवन का कठिन समय हमें यह जानने का अवसर देता है कि अपनी ऊर्जा का दुरुपयोग हमने कब और कैसे किया।

जब तक हम ईश्वर के कानून को उनके प्रेम के रूप में नहीं पहचानते संभवतः तब तक हमें कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। लेकिन जब हम यह बात मान लेते हैं तब हम कर्म को ईश्वर की दया के रूप में पहचान पाते हैं। इसलिए हमें यह समझना चाहिए कि जो भी हमारे जीवन में घटता है वह ईश्वर के प्रेम के तहत होता है। अगर ईश्वर हमें कोई सज़ा भी देते हैं तो वह भी उनका प्रेम ही है, वह हमें परिष्कृत करने के लिए ऐसा करते हैं। यह प्रेम ही हमारे जीवन में आध्यात्मिक उन्नति लाता है।

कर्म का रूपांतरण

संत जर्मेन ने मानवता को वायलेट लौ का प्रयोग करके कर्म को रूपांतरण करने का मार्ग दिखाया है। ऐसा करके व्यक्ति ईश्वरत्व को प्राप्त कर, मोक्ष प्राप्त कर पुनर्जन्म के चक्र से बाहर आ सकता है। ईसा मसीह ने अपने जीवन द्वारा इसी मार्ग को दर्शाया है।

इसे भी देखिये

पुनर्जन्म

सामूहिक कर्म

सांकेतिक कर्म

कर्म को चकमा देना

बाइबिल में कर्म

कर्म के देवता

अधिक जानकारी के लिए

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, Lost Teachings of Jesus: Missing Texts • Karma and Reincarnation, पृष्ठ १७३–७७

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, Lost Teachings on Your Higher Self, पृष्ठ २३८–४७

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, The Path of Self-Transformation.

स्रोत

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, Saint Germain On Alchemy: Formulas for Self-Transformation, शब्दावली, एस.वी. "कर्म"

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, The Path of Self-Transformation.

Elizabeth Clare Prophet with Erin L. Prophet, Reincarnation: The Missing Link in Christianity, चौथा अध्याय

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, The Masters and Their Retreats, एस.वी. “कार्मिक बोर्ड”

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, The Path to Attainment.

एलिज़ाबेथ क्लेयर प्रोफेट, ३१ दिसंबर १९७२; २९ जून १९८८

एलिज़ाबेथ क्लेयर प्रोफेट, "प्रोफेसीस फॉर द नाइनटीस III," Pearls of Wisdom, vol. ३३, no. ८ २५ फरवरी, १९९०.

  1. गैल। ६:७.
  2. महाभारत १३.६.६, क्रिस्टोफर चैपल, कर्मा एंड क्रिएटिविटी" में कहा गया है। (अल्बानी: स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यूयॉर्क प्रेस, १९८६), पृष्ठ ९६.
  3. होनोरे डी बाल्ज़ाक, सेराफिटा, ३डी संस्करण, रेव। (ब्लौवेल्ट, एन.वाई.: गार्बर कम्युनिकेशंस, फ्रीडीड्स लाइब्रेरी, १९८६), पृष्ठ १५९.
  4. किसारी मोहन गांगुली द्वारा अनुवादित द महाभारत औफ कृष्ण-द्वैपायन व्यास, खंड १२ (नई दिल्ली: मुंशीराम मनोहरलाल, १९७०), ९:२९६।
  5. श्वेताश्वतर उपनिषद, प्रभावानंद और मैनचेस्टर में, द उपनिषद, पृष्ठ ११८.
  6. जुआन मास्कारो, के द धम्मपद: द पाथ ऑफ परफेक्शन का अनुवाद (न्यूयॉर्क: पेंगुइन बुक्स, १९७३), पृष्ठ ३५.
  7. ब्रह्मचारिणी उषा, संकलन, ए रामकृष्ण-वेदांत वर्डबुक (हॉलीवुड, कैलिफ़ोर्निया: वेदांत प्रेस, १९६२), एस.वी. "कर्म।"
  8. द इनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ ईस्टर्न फिलोसोफी एंड रिलिजन (बोस्टन: शम्भाला प्रकाशन, १९८९), एस.वी. "कर्म।"
  9. ६७.
  10. Gal. ६:५, ७.
  11. Matt. २५:४०.
  12. देखिये अग्नि की झील.
  13. Matt. २५:४१.
  14. रोम। २:६-११ (जेरूसलम बाइबिल)
  15. Matt ७:२.