Karma/hi: Difference between revisions

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== कर्म और भाग्य ==
== कर्म और भाग्य ==


Today, the word ''karma'' is used as a fashionable substitute for ''fate''. But belief in karma isn’t fatalism. Karma, according to the Hindus, can cause people to be born with certain tendencies or characteristics, but it doesn’t force them to act according to those characteristics. Karma does not negate free will.  
अक्सर हम ''कर्म'' शब्द का प्रयोग ''भाग्य'' के एवज़ में करते हैं । लेकिन यह सत्य नहीं। कर्म में विश्वास भाग्यवाद नहीं है। हिंदु धर्म के अनुसार, अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के कारण वर्तमान जीवन में हम में कुछ विशेष प्रवृत्तियां या आदतें हो सकती है, परन्तु हम उन विशेषताओं के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य नहीं। कर्म स्वतंत्र इच्छा को नहीं नकारता।  


Each person “can choose to follow the tendency he has formed or to struggle against it,”<ref>Brahmacharini Usha, comp., ''A Ramakrishna-Vedanta Wordbook'' (Hollywood, Calif.: Vedanta Press, 1962), s.v. “karma.”</ref> as the Vedanta Society, an organization promoting Hinduism in the West, explains. “Karma does not constitute determinism,” we read in ''The Encyclopedia of Eastern Philosophy and Religion''. “The deeds do indeed determine the manner of rebirth but not the actions of the reborn individual—karma provides the situation, not the response to the situation.”<ref>''The Encyclopedia of Eastern Philosophy and Religion'' (Boston: Shambhala Publications, 1989), s.v. “karma.”</ref>
Each person “can choose to follow the tendency he has formed or to struggle against it,”<ref>Brahmacharini Usha, comp., ''A Ramakrishna-Vedanta Wordbook'' (Hollywood, Calif.: Vedanta Press, 1962), s.v. “karma.”</ref> as the Vedanta Society, an organization promoting Hinduism in the West, explains. “Karma does not constitute determinism,” we read in ''The Encyclopedia of Eastern Philosophy and Religion''. “The deeds do indeed determine the manner of rebirth but not the actions of the reborn individual—karma provides the situation, not the response to the situation.”<ref>''The Encyclopedia of Eastern Philosophy and Religion'' (Boston: Shambhala Publications, 1989), s.v. “karma.”</ref>

Revision as of 10:24, 24 April 2024

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निम्नलिखित लेखों की श्रृंखला का हिस्सा
ब्रह्मांडीय कानून



ब्रह्मांडीय कानून



पत्राचार का कानून
कालचक्र का कानून
क्षमा याचना का कानून
कर्म
सृष्टि के एकरूप होने का कानून
सामान्य से परे होनेवाले अनुभवों का कानून
 

[यह संस्कृत शब्द कर्मण, कर्म, "कार्य," से लिया गया है] ऊर्जा/चेतना का कार्य; कारण और उसके प्रभाव का कानून, प्रतिशोध का कानून. इसे चक्रिक नियम भी कहते हैं - इसका मतलब है जो भी कार्य हम करते हैं उनका फल एक दिन हमारे सामने ज़रूर आता है।

पॉल ने कहा है: "मनुष्य जो कुछ बोएगा, वही काटेगा।"[1] न्यूटन के अनुसार: "प्रत्येक क्रिया की एक प्रतिक्रिया होती है जोकि क्रिया के बराबर होती है।"

कर्म का सिद्धांत आत्मा के पुनर्जन्म को तब तक आवश्यक बनाता है जब तक कि सभी कर्म संतुलित नहीं हो जाते। इस प्रकार, पृथ्वी पर विभिन्न जन्मों में मनुष्य अपने कार्यों, विचारों, भावनाओं, शब्दों और कर्मों से अपना भाग्य निर्धारित करता है।

उत्पत्ति

कर्म ईश्वर की चलायमान ऊर्जा है। ईश्वर के मन में उत्पन्न होने वाली, ऊर्जा ---- क्रिया-प्रतिक्रिया-पारस्परिक क्रिया ---- लोगोस की त्रिमूर्ति है। ईश्वर के मन का रचनात्मक बलक्षेत्र कर्म का स्रोत है।

सदियों से कर्म शब्द का उपयोग मनुष्य की कार्य-कारण संबंधी अवधारणाओं, ब्रह्मांडीय कानून और उस कानून के साथ उसके संबंध को परिभाषित करने के लिए किया जाता रहा है। शब्द आत्मा से पदार्थ तक के प्रवाह को नियंत्रित करने वाली ऊर्जा की एक कुंजी है। दिव्यगुरूओं के अनुसार कर्म मूलतः लेमुरिया सभ्यता का शब्द है, जिसका अर्थ है - किरण के कारण की अभिव्यक्ति।

कर्म ही ईश्वर है; कर्म ही ईश्वर के कानून, सिद्धांत और इच्छा को पालन करने का साधन है। जब आत्मा का मिलन ईश्वर की इच्छा, बुद्धि और प्रेम के साथ होता है तो आत्मा भौतिक (मानव) रूप ग्रहण करती है। नियमानुसार कर्म का पालन करने से ही मनुष्य का अस्तित्व है, कर्म से ही मनुष्य स्वयं को जीत सकता है।

कर्म चक्रीय होता है - भगवान की ब्रह्मांडीय चेतना के क्षेत्र के अंदर प्रवेश करना और बाहर आना - ठीक ऐसे ही जैसी हम सांस लेते हैं - एक अंदर एक बाहर।

आत्मिक पदार्थ ब्रह्मांड के सातों स्तरों पर सारा निर्माण कर्म पर ही निर्भर है। कर्म ही पूरी सृष्टि की धुरी है। सृष्टि और उसके रचयिता के बीच ऊर्जा के प्रवाह का एकीकरण कर्म द्वारा ही होता है। कर्म से ही कारण प्रभाव में बदल जाता है। कर्म पदक्रम की एक महान श्रृंखला है जो अल्फा और ओमेगा की ऊर्जा को स्थानांतरित करती है।

ईश्वर का कर्म

मुख्य लेख: ईश्वर

"सृष्टि के शुरुआत में ईश्वर ने स्वर्ग और पृथ्वी की रचना की" - और इसी के साथ क्रिया-प्रतिक्रिया-पारस्परिक क्रिया का भी प्रारम्भ हुआ। ईश्वर प्रथम कारण थे और उन्होंने प्रथम कर्म बनाया। स्वेच्छा से सृष्टिकर्ता और सृष्टि दोनों को बनाकर ईश्वर ने अपनी ऊर्जा की अविनाशी गति (कर्म) को चलायमान किया, और ब्रह्माण्ड में कर्म के नियमों को स्थायी कर दिया। सृष्टि की रचना ईश्वर का कर्म है। ईश्वर के पुत्र और पुत्रियां जीवंत ईश्वर (मनुष्य) का कर्म है।

ईश्वर का कर्म आत्मा और पदार्थ के बीच उत्कृष्ट सामंजस्य के रूप में दिखता है। ईश्वर का कर्म उनकी गतिमान ऊर्जा के नियमों का पालन करता है। इसे हम उनकी इच्छा के परिवहन के रूप में देख सकते हैं जिससे विभिन्न प्रकार की शक्तियां उत्पन्न होती है। ईश्वर का कर्म इन सभी ब्रह्मांडीय शक्तियों में तादात्म्य स्थापित करना है।

स्वतंत्र इच्छा और कर्म

चाहे मनुष्य हो या ईश्वर, स्वतंत्र इच्छा के बिना कोई कर्म नहीं हो सकता। इसका अर्थ यह हुआ कि स्वतंत्र इच्छा पवित्र आत्मा की एक शाखा है जो किरण के कारण को दर्शाती है। स्वतंत्र इच्छा एकीकरण के नियम का मूल बिंदु है। केवल ईश्वर और मनुष्य ही कर्म बनाते हैं, क्योंकि इन्ही दो के पास स्वतंत्र इच्छा है। अन्य सभी प्राणी - सृष्टि देव, देवी देवता और देवदूत - भगवान और मनुष्य की इच्छा को पूरा करने के साधन हैं। और इसी वजह से वे भगवान और मनुष्य के कर्म के उपकरण हैं।

देवदूतों की स्वतंत्र इच्छा ईश्वर की स्वतंत्र इच्छा है। ईश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए देवदूतों की आवश्यकता होती है। देवदूतों के पास मनुष्य की तरह ईश्वर की ऊर्जा का उपयोग करने की स्वतंत्रता नहीं है। परन्तु देवदूतों के पास अपनी गलतियां सुधारने का अधिकार अवश्य है - अपनी गलतियां सुधार कर वे स्वयं को ईश्वर की इच्छा और ऊर्जा के साथ पुनः जोड़ सकते हैं।

कभी कभी देवदूत ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध विद्रोह कर देते हैं परन्तु यह विद्रोह मनुष्य की स्वतंत्र इच्छा के फलस्वरूप हुए कर्म-निर्माण से अलग है। ईश्वर के कानून के अंतर्गत अपनी स्वतंत्र इच्छा का उपयोग करके मनुष्य अपने ईश्वरीय स्वरुप को पुनः प्राप्त कर सकता है। मनुष्य अपनी स्वतंत्र इच्छा का विभिन्न रूप से प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र है, क्योंकि उसमें ईश्वर बनने की क्षमता है।

वहीँ दूसरी ओर, यदि देवदूत - जिनका काम केवल ईश्वर की स्वतंत्र इच्छा को पूरा करना है - ईश्वर की इच्छा का विरोध करते हैं, तो वे अपने उच्च स्थान से निष्कासित हो जाते हैं। ऐसे देवदूतों को मनुष्य जीवन लेना होता है।

मानवजाति देवदूतों के अपेक्षा निम्न स्थान पर है। इसलिए जब मनुष्य नकारात्मक कर्म करता है, तो वह अपने स्थान पर रहकर ही उन्हें संतुलित करता है। लेकिन ईश्वर की इच्छा का विरोध करने वाला देवदूत अपने उच्च स्थान से हटा दिया जाता है - उसे अपनी ऊर्जा को संतुलित करने के लिए मानजाति में भेज दिया जाता है।

हिन्दू शिक्षण

हिंदू धर्म में संस्कृत शब्द कर्म (जिसका अर्थ कार्य, काम या कृत्य है) उन कार्यों के बारे में बताने के लिए किया जाता है जो आत्मा को अस्तित्व की दुनिया से बांधते हैं। महाभारत में कहा गया है, "जैसे एक किसान एक निश्चित प्रकार के बीज से एक निश्चित फसल प्राप्त करता है, वैसे ही यह अच्छे और बुरे कर्मों के साथ होता है," महाभारत १३.६.६, क्रिस्टोफर चैपल, कर्मा एंड क्रिएटिविटी" में कहा गया है। (अल्बानी: स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यूयॉर्क प्रेस, १९८६), पृष्ठ ९६.</ref> एक हिंदू महाकाव्य। क्योंकि हमने अच्छाई और बुराई दोनों बोई है, हमें फसल काटने के लिए वापस लौटना होगा।

हिंदू धर्म के अनुसार है कि कुछ जीवात्माएं पृथ्वी पर अपने जीवन से संतुष्ट रहती हैं। वे सुख-दुख, सफलता-विफलता के मिश्रण के साथ पृथ्वी पर जीवन का आनंद लेती हैं। अपने अच्छे और बुरे कर्मों का हिसाब करते हुए वे इस जीवन-मरण के चक्र में फंसे रहना पसंद करती हैं।

लेकिन जो लोग जन्म-मृत्यु की चक्र से थक गए हैं और भगवान के साथ मिलना चाहते हैं उनके लिए एक रास्ता है। जैसा कि फ्रांसीसी उपन्यासकार होनोर डी बाल्ज़ाक ने कहा, "हम अपना प्रत्येक जीवन ईश्वर के प्रकाश तक पहुँचने के लिए जीएं। मृत्यु जीवात्मा की यात्रा का एक पड़ाव है।" [2]

जब जीवात्मा अपने स्रोत पर (ईश्वर के पास) लौटने का निर्णय कर लेती है तो उसका लक्ष्य खुद को अज्ञानता और अंधकार से मुक्त करना होता है। इस प्रक्रिया में कई जन्म लग सकते हैं। महाभारत में जीवात्मा की शुद्धिकरण की प्रक्रिया की तुलना सोने को परिष्कृत करने की प्रक्रिया से की गई है - जिस प्रकार सुनार धातु को शुद्ध करने के लिए बार-बार आग में डालता है वैसे ही स्वयं को शुद्ध करने के लिए जीवात्मा को बार बार पृथ्वी पर आना पड़ता है। महाभारत हमें यह भी बताती है कि कुछ जीवात्माएं अपने "शक्तिशाली प्रयासों" द्वारा एक ही जीवन में स्वयं को शुद्ध कर लेती है, लेकिन अधिकांशतः को इस कार्य में "सैकड़ों जन्म" लग जाते हैं। [3] पूरी तरह से शुद्ध होने पर आत्मा पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो परब्रह्म के साथ मिल जाती है। आत्मा "अमर हो जाती है।"[4]

बौद्ध शिक्षण

बौद्ध धर्म के अनुयायी पुनर्जन्म के चक्र को एक पहिये के रूप में देखते हैं - एक ऐसा पहिया जिससे हम तब तक बंधे रहते हैं जब तक कि हम कर्म की जंजीरों को तोड़ नहीं देते। बौद्ध धर्म के संस्थापक सिद्धार्थ गौतम (सी. ५६३-सी. ४८३ बी सी) ने एक हिंदू के रूप में जीवन शुरू किया था। उन्होंने हिन्दू धर्म से कर्म और पुनर्जन्म के बारे ज्ञान प्राप्त किया और फिर उसका अध्ययन और विस्तार किया।

बौद्ध धर्म के एक प्रसिद्द ग्रन्थ, धम्मपद, में कर्म की व्याख्या इस प्रकार की गई है: “हमारा आज का अस्तित्व हमारे कल के विचारों के कारण हैं, और हमारा भविष्य हमारे आज के विचारों पर निर्भर है। हमारा पूरा जीवन हमारे दिमाग की ही रचना है। यदि कोई मनुष्य गलत शब्द बोलता है या गलत कार्य करता है, तो दुख उसका उसी प्रकार पीछा करता है, जैसे गाड़ी का पहिया गाड़ी खींचने वाले का। इसके विपरीत जो मनुष्य अच्छा बोलता है और अच्छे कार्य करता है आनंद उसकी परछाई की तरह उसका अनुसरण करता है। ”[5]

कर्म और भाग्य

अक्सर हम कर्म शब्द का प्रयोग भाग्य के एवज़ में करते हैं । लेकिन यह सत्य नहीं। कर्म में विश्वास भाग्यवाद नहीं है। हिंदु धर्म के अनुसार, अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के कारण वर्तमान जीवन में हम में कुछ विशेष प्रवृत्तियां या आदतें हो सकती है, परन्तु हम उन विशेषताओं के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य नहीं। कर्म स्वतंत्र इच्छा को नहीं नकारता।

Each person “can choose to follow the tendency he has formed or to struggle against it,”[6] as the Vedanta Society, an organization promoting Hinduism in the West, explains. “Karma does not constitute determinism,” we read in The Encyclopedia of Eastern Philosophy and Religion. “The deeds do indeed determine the manner of rebirth but not the actions of the reborn individual—karma provides the situation, not the response to the situation.”[7]

Buddhism concurs. Buddha taught that understanding karma gives us the opportunity to change the future. He challenged a contemporary teacher named Makkhali Gosala, who taught that human effort has no effect on fate and that liberation is a spontaneous event. For the Buddha, belief in fate, or destiny, was the most dangerous of all doctrines.

Rather than consigning us to an irreversible fate, he taught, reincarnation allows us to take action today to change the future. Our good works of today can bring us a happier tomorrow. As the Dhammapada puts it, “Just as a man who has long been far away is welcomed with joy on his safe return by his relatives, well-wishers and friends; in the same way the good works of a man in his life welcome him in another life, with the joy of a friend meeting a friend on his return.”[8]

According to the Hindus and Buddhists, our karma requires us to continue reincarnating until we achieve divine union. The union with Atman may occur in stages while we are alive and be made permanent after death.

Karma and Christianity

Main article: Karma in the Bible

The law of karma is set forth throughout the Bible. The apostle Paul makes clear what Jesus taught him and what he learned from life:

Every man shall bear his own burden....

Be not deceived; God is not mocked: for whatsoever a man soweth, that shall he also reap.[9]

Karma can bring boon and blessing to those who have sown well according to the golden rule: “Do unto others as you would have them do unto you.”

The law of cause and effect and of free will is affirmed by Jesus over and over again in his parables to his own and in his warnings to the seed of the wicked. Our Lord speaks often of the day of judgment, which is the day of reckoning of every man’s karmic accounts as recorded in his own book of life. In Matthew 12:35–37 he lectures to the scribes and Pharisees on the law of cause and effect:

A good man out of the good treasure of the heart bringeth forth good things [i.e., positive karma]: and an evil man out of the evil treasure bringeth forth evil things [i.e., negative karma].

But I say unto you, That every idle word that men shall speak, they shall give account thereof in the day of judgment.

For by thy words thou shalt be justified, and by thy words thou shalt be condemned.

In Matthew 25 Jesus illustrates that the final judgment is based on the karma of an active (positive) or an inactive (negative) Christianity. Here works of love (i.e., charity) are the key to salvation. The Lord promises to those who minister unto him even in the person of “one of the least of these my brethren”[10] that they shall inherit the kingdom; whereas to those who do not minister unto him for the very love of Christ in all people, he says, “Depart from me, ye cursed, into everlasting fire,[11] prepared for the devil and his angels.”[12]

The apostle Paul, in his exhortations to the stubborn Romans, confirms Jesus’ teaching on the wages of karma:

[God] will repay each one as his works deserve. For those who sought renown and honor and immortality by always doing good there will be eternal life; for the unsubmissive who refused to take truth for their guide and took depravity instead, there will be anger and fury. Pain and suffering will come to every human being who employs himself in evil...; renown, honor and peace will come to everyone who does good.... God has no favorites.[13]

In his Sermon on the Mount, Jesus states the mathematical precision of the law of karma: “With what judgment ye judge, ye shall be judged: and with what measure ye mete, it shall be measured to you again.”[14] In fact, the entire sermon (Matthew 5–7) is Jesus’ doctrine on the rewards of righteous and unrighteous conduct. It is his teaching on the consequences of thoughts, feelings, words and deeds. It is the greatest lesson on karma, as the law of personal accountability for one’s acts, you will find anywhere.

Lords of Karma

Main article: Karmic Board

The Karmic Board is a body of eight ascended masters who are assigned the responsibility to dispense justice to this system of worlds, adjudicating karma, mercy and judgment on behalf of every lifestream. The Lords of Karma are divine intercessors who serve under the twenty-four elders as mediators between a people and their karma.

The Lords of Karma adjudicate the cycles of individual karma, group karma, national karma and world karma, always seeking to apply the Law in the way that will give people the best opportunity to make spiritual progress.

Astrology and karma

Main article: Astrology

Properly understood, astrology accurately predicts returning karma. By astrology it is possible to chart the time and manner in which persons, institutions, nations and planets receive their karma and their initiations. Every sign of the zodiac and every planet is an initiator and can play the role of guru in our life.

It is not our astrology that creates us but it is we who create our astrology. Our astrology at birth has encoded within it the sum of karma that the Lords of Karma have decreed we will face in this life. And when karma returns we are tested. Each individual will respond to his astrology, hence his karma, according to the psychology of personality developed through many embodiments.

What we think of as “bad” astrology really indicates our own karmic vulnerability. It tells us that we will be vulnerable to a particular transit and the momentums it will deposit on our doorstep on a day and hour that can be foreknown.

Karma as opportunity

When people talk about karma, they often think of the wrath of God, of punishment, of the idea that if they have been bad before they’re going to have to suffer now. This is one more ramification of the teachings of hell-fire and damnation, the concepts that have been propounded by Lucifer to thwart the true Christian doctrine.

Karma is not punishment. Karma returning to us is simply the law of cause and effect—for every wrong that we have done we must anticipate a joyous opportunity in the future to undo that wrong. And we have to seize that opportunity with rejoicing because here is a chance to balance our debts to Life.

Returning karma is the glorious opportunity for us to be free, for us to learn the law of non-attachment, non-possessiveness, and to realize the effects of the causes we have sent out. It is altogether natural and proper that we should be able to be on the receiving end of whatever we’ve sent out. If we have sent out love, we have a right to know what it feels like to receive that love in return, and if we have sown hatred or sadness, that’s going to come back also. And when it comes back we shouldn’t have any sense that this is unjust.

Unfortunately, many see the Law of God as a law of disaffection and disavowal. They envision a God who has no use for us but is simply the Lawgiver who stands ready to strike mankind with a rod of punishment. But God does not deal our karma to us as punishment. Karma is a manifestation of an impersonal law as well as a personal one. The purpose of our bearing our karma is that karma is our teacher. We must learn the lessons of how and why we misused the energy of life.

Until that day comes when we recognize the Law of God as a Law of love, we will probably encounter difficulties. But if we will only hasten that day’s coming into our own life, we will recognize that karma is actually grace and beauty and joy. We should understand, then, that the Law that comes to us is the Law of love. When it becomes chastening, it is the chastening of love. When it becomes the fruit in our life of our own advancement, this is the fruit of that love.

Transmutation of karma

Saint Germain teaches the accelerated path of transmutation of karma by the violet flame of the Holy Spirit and the transcending of the rounds of rebirth through the path of individual Christhood leading to the ascension demonstrated by Jesus.

See also

Reincarnation

Group karma

Token karma

Karma dodging

Karma in the Bible

Lords of Karma

For more information

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, Lost Teachings of Jesus: Missing Texts • Karma and Reincarnation, pp. 173–77.

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, Lost Teachings on Your Higher Self, pp. 238–47.

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, The Path of Self-Transformation.

Sources

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, Saint Germain On Alchemy: Formulas for Self-Transformation, Glossary, s.v. “Karma.”

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, The Path of Self-Transformation.

Elizabeth Clare Prophet with Erin L. Prophet, Reincarnation: The Missing Link in Christianity, chapter 4.

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, The Masters and Their Retreats, s.v. “Karmic Board.”

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, The Path to Attainment.

Elizabeth Clare Prophet, December 31, 1972; June 29, 1988.

Elizabeth Clare Prophet, “Prophecy for the 1990s III,” Pearls of Wisdom, vol. 33, no. 8, February 25, 1990.

  1. गैल। ६:७.
  2. होनोरे डी बाल्ज़ाक, सेराफिटा, ३डी संस्करण, रेव। (ब्लौवेल्ट, एन.वाई.: गार्बर कम्युनिकेशंस, फ्रीडीड्स लाइब्रेरी, १९८६), पृष्ठ १५९.
  3. किसारी मोहन गांगुली द्वारा अनुवादित "द महाभारत औफ कृष्ण-द्वैपायन व्यास, खंड १२ (नई दिल्ली: मुंशीराम मनोहरलाल, १९७०), ९:२९६।
  4. श्वेताश्वतर उपनिषद, प्रभावानंद और मैनचेस्टर में, द उपनिषद, पृष्ठ ११८.
  5. जुआन मास्कारो, के द धम्मपद: द पाथ ऑफ परफेक्शन का अनुवाद (न्यूयॉर्क: पेंगुइन बुक्स, १९७३), पृष्ठ ३५.
  6. Brahmacharini Usha, comp., A Ramakrishna-Vedanta Wordbook (Hollywood, Calif.: Vedanta Press, 1962), s.v. “karma.”
  7. The Encyclopedia of Eastern Philosophy and Religion (Boston: Shambhala Publications, 1989), s.v. “karma.”
  8. Mascaró, The Dhammapada, p. 67.
  9. Gal. 6:5, 7.
  10. Matt. 25:40.
  11. See Lake of fire.
  12. Matt. 25:41.
  13. Rom. 2:6–11 (Jerusalem Bible).
  14. Matt. 7:2.