ईसा मसीह

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Portrait of Jesus Christ by Charles Sindelar
दिव्यगुरु ईसा मसीह

दिव्यगुरु ईसा मसीह। मीन युग के अवतार; (ईश्वर के) शब्द का अवतार, सार्वभौमिक आत्मा ; आत्मिक चेतना का उदाहरण, जिसे मीन युग के दो-हजार वर्ष की व्यवस्था में ईश्वर के बच्चों द्वारा चित्रित किया गया था; वे जिन्होंने आत्मिक स्व की पूर्णता को महसूस किया जिसके कारण उनका नाम जीसस, द क्राइस्ट पड़ा। वे संपूर्ण मानव जाति को यह बताने आये थे की जिस प्रकार वे ईश्वरीय स्वरुप को निपुणता से हासिल कर सकते, पृथ्वी पर रहनेवाला हर मनुष्य कर सकता है।

दिव्यगुरु कुथुमी की तरह ईसा मसीह भी विश्व शिक्षक के पद पर आसीन हैं। कुथुमी संत फ्रांसिस के रूप में भी अवतरित हुए थे।

शब्द का अवतार

नाज़रेथ के यीशु जीते जागते मसीह थे/ हैं क्योंकि वह ईश्वर के शब्द की परिपूर्णता थे। उनमें शक्ति, ज्ञान और प्रेम की त्रिदेव ज्योत, पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा की त्रिमूर्ति, भस्म करने वाली पवित्र अग्नि थी। वे ईश्वर के समरूप हैं, और अपनी रौशनी से सभी को प्रकाशित करते हैं।

एक सामान्य पुरुष और महिला में (ह्रदय के अंदर एक गुप्त कक्ष में स्थित) त्रिदेव ज्योत की ऊंचाई एक इंच का सोलहवां हिस्सा होती है - नोआह के जीवनकाल के दौरान भगवान के एक आदेशानुसार त्रिदेव ज्योत की ऊंचाई कम हुई थी। त्रिदेव ज्योत के आकार को बढ़ाने की शिक्षा हमें ईसा मसीह ने दी है। वे बताते हैं कि किस तरह हम उनके उदाहरण का अनुसरण कर ईश्वर के शब्द का जीवंत अवतार बन सकते हैं। उन्होंने हमें प्रेम, ज्ञान और शक्ति की ऊर्जाओं को संतुलित करना सिखाया है जिससे हमारी त्रिदेव ज्योत इतनी बड़ी हो जाए कि हमारा पूरा शरीर उसमें समा जाए और हम पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के जीते जागते साक्ष्य बन जाएं।

ईश्वर की लौ बनना ही जीवन का लक्ष्य है। मानव जाति के उद्धारकर्ता ईसा मसीह हमें बताते हैं कि सत्य के मार्ग पर चलना, अपने ईश्वरीय स्वरुप को पाना ही जीवन का ध्येय है।

अवतार

यीशु पहली बार सनत कुमार के साथ एक स्वयंसेवक के रूप में पृथ्वी पर आए थे, उसके बाद वे कई बार पृथ्वी पर अवतरित हुए।

अटलांटिस पर सतयुग का शासक

मुख्य लेख: अटलांटिस पर ईसा मसीह का सतयुग

अपने एक अवतार में इन्होनें अटलांटिस की सतयुगीन सभ्यता के दौरान सम्राट और उच्च पुजारी के रूप में शासन किया, जो दो हज़ार वर्ष तक चली - ३४,५५० बी सी से ३२,५५० बी सी तक। यह समय आज से सत्रह युग पूर्व का था, और यह कर्क राशि का युग था। यीशु का जन्म ३३,०५० बी सी में हुआ था, और उनका शासन काल ३३,००० बी सी में शुरू हुआ था - तब सतयुग के १,५०० वर्ष बीत चुके थे। उनकी पत्नी उनकी समरूप जोड़ी थीं, जिन्हें आज हम महिला दिव्यगुरु मैग्डा के रूप में जानते हैं। उस समय वे मनुष्य रूप में ईश्वर के सर्वोच्च प्रतिनिधि थे। इस सभ्यता के सभी लोग ईश्वर के बताये रास्ते पर चलते थे। यीशु और मैग्डा को लोगों पर कोई नियम लागू नहीं करना पड़ा क्योंकि वे सभी अपने ईश्वरीय स्रोत के अनुरूप थे।

ईसा मसीह का राजकाल ४५० साल तक चला, पर इसके बाद ज़ेनोस (Xenos) नामक व्यक्ति ने भ्रष्टाचार के बीज बोने शुरू कर दिए। ज़ेनोस ईसा मसीह का मुख्य सलाहकार था। अंततः वह अपने मकसद में कामयाब भी हो गया - उसने जनता को राजा (ईसा मसीह) के खिलाफ आंदोलन करने को राज़ी कर लिया और स्वयं राजा बन गया। करीब दो मिलियन लोग (जन समुदाय का २० प्रतिशत) ईसा मसीह और मैग्डा के साथ एक दूसरे स्थान पर चले गए - यह स्थान बाद में सुएर्न (Suern) कहलाया - यह भारत और अरब को मिलाकर बना था। इनमें से आधे लोगों का आध्यात्मिक उत्थान हो गया और बाकी आज भी पृथ्वी पर हैं तथा आध्यात्मिक उत्थान के मार्ग पर चल रहे हैं।

अटलांटिस पर अन्य अवतार

मुख्य लेख: अटलांटिस पर ईसा मसीह का सतयुग

इस अवतार के बाद, जब जब उनकी ज़रूरत महसूस हुई, यीशु अटलांटिस और अन्य जगहों पर अवतरित हुए। लगभग १५,००० बी.सी के दैरान यीशु अटलांटिस के शासक राय के रूप में लौटे। जैसा कि फिलोस द तिब्बतन ने अपनी पुस्तक ए ड्वेलर ऑन टू प्लैनेट्स में वर्णित किया है, राय कैफुल के मंदिर में प्रकट हुए - इसी स्थान पर मैक्सिन, इंकाल की आग का भी उदय हुआ था। यह लौ मंदिर की वेदी पर ५००० वर्षों तक जलती रही। राय ने यहां ४३४ दिनों तक शासन किया। उन्होंने कानूनों को संशोधित किया और एक कानूनी कोड भी प्रदान किया जिसके अनुसार अगले हजारों वर्षों तक अटलांटिस पर शासन हुआ।

सतयुग के बाद मिथ्या पुजारियों ने एटलांटिस की सभ्यता को भ्रष्ट कर दिया और इंसान पूरी तरह से धूर्त हो गया था और उसके दिल में बुराई ने स्थायी रूप से वास कर लिया।”[1]फिर एक महान प्रलय (जिसे बाइबिल में नोह की बाढ़ के रूप में दर्ज किया गया है) में एटलांटिस पूर्णतया नष्ट हो गया।

ऐबिल और सेठ

आदम और हव्वा के उत्पत्ति वृत्तांत के अनुसार यीशु का जन्म आदम के पुत्र ऐबिल के रूप में हुआ था। एबिल ईश्वर के प्रति समर्पित थे और हत्या उनके ईर्ष्यालु भाई कैन ने की थी। जब हव्वा दुबारा गर्भवती हुई तो उन्होंने एक और बेटे को जन्म दिया और उसका नाम सेठ रखा। हव्वा ने कहा था: भगवान ने एबिल के स्थान पर मुझे एक और वंशज दिया है।"[2]

बाद में सेठ के यहां एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम एनोस रखा गया। [3] इस प्रकार, सेठ (पुनर्जन्मित एबिल) में ईसा मसीह के आध्यात्मिक बीज के पुनर्जन्म और नवीनीकरण के माध्यम से पृथ्वी पर रहनेवाले भगवान के बेटे और बेटियों को एक बार फिर से शक्तिशाली ईश्वरीय उपस्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त हुई।

जैकब का पुत्र जोसफ

इसके बाद यीशु जैकब के पुत्र जोसफ के रूप में आए, जिसे उनके भाइयों ने मिस्र में गुलामी के लिए बेच दिया था - इन्हीं भाइयों ने बाद में यीशु के शिष्यों के रूप में जन्म लिया था। फ़राओ के सपनों की आध्यात्मिक व्याख्या करने के फलस्वरूप मिस्र में उन्हें राजकीय मामलों का उच्चाधिकारी बनाया गया।

जोशुआ

नन के पुत्र जोशुआ के रूप में यीशु ने जेरिको की दीवार को ध्वस्त किया और इस्राराएल के लोगों को प्रॉमिस्ड लैंड में जाने का मौका दिया

जोशुआ युद्ध में निपुण एक शक्तिशाली नेता थे, जो भगवान कृष्ण के मार्ग और आदर्श का अनुसरण करते थे। वे अँधेरे पर प्रकाश की विजय के लिए समर्पित थे।

डेविड, राजा

मुख्य लेख: डेविड, राजा

डेविड के रूप में उन्होंने कई भजन लिखे: "तू मेरी आत्मा को नरक में नहीं छोड़ेगा; न ही आप पवित्र जीवात्मा को भ्रष्टाचार देखने देंगे।"[4]

बेंजामिन वेस्ट द्वारा १७६६ में लिखा एलीशा राइज़िंग द शुनेमाइट्स सन

एलीशा

मुख्य लेख: एलीशा

एलीशा एलिजा के शिष्य थे, जिनका आध्यात्मिक उत्थान हुआ था। बाद में एक विशेष व्यवस्था के तहत गैलील में यीशु के मिशन के लिए रास्ता तैयार करने हेतु उन्होंने जॉन द बैपटिस्ट के रूप में पुनः जन्म लिया।

मीन युग का अवतार

पूर्वी और पश्चिमी देशो में कई जन्म लेने व् विभिन्न दीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के बाद यीशु ने अपने अंतिम अवतार में जन्म लिया। इन सब जन्मों के दैरान उन्होंने अपने कर्म का एक छोटा भाग अपने भविष्य के मिशन के लिए बचाये रखा था - इसे उन्होंने तैंतीस साल की उम्र में फिलिस्तीन छोड़ने के समय संतुलित किया। यीशु ने यह जान लिया था कि उनके पुराने गुरु एलिजा ने इस जन्म में जॉन द बैपटिस्ट के रूप में जन्म लिया है और ऐसा उन्होंने अपने चेले (यीशु) के लिए रास्ता तैयार करने के लिए किया था।

जॉन द बैपटिस्ट ने यीशु के बारे में कहा, "उसे बढ़ना चाहिए और मुझे कम होना चाहिए।"[5] इसके बाद गुरु पीछे हट गए ताकि यीशु उस युग (मीन युग) में प्रभु का प्रभावशाली अवतार बन पाएं।

बारह से तीस वर्ष की आयु के बीच, यीशु ने असेंशन टेम्पल और हिमालय के बाहरी और भीतरी दोनों स्थानों में अध्ययन किया। मिश्र में स्थित लक्सर के असेंशन टेम्पल के प्रमुख सेरापिस बे ने बताया है कि यीशु युवावस्था में लक्सर आये थे। उन्होंने यह भी बताया है कि यीशु ने किसी भी प्रकार का सम्मान लेने से इंकार कर दिया; वे हिरोफ़ैंट के सामने सर झुका कर खड़े हो गए और उन्होंने आध्यात्मिक कानून एवं रहस्य विद्या में दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की। यद्यपि वे सर्वोच्च सम्मान के हकदार थे परन्तु उनके चेहरे पर अहम् का कोई भाव नहीं था, और न ही कोई गर्व का भावना या झूठी उम्मीद।[6]

मुख्य लेख: यीशु के खोये हुए वर्ष

यीशु की पूर्व क्षेत्रों की यात्रा का वर्णन करने वाले सूचीपत्र आज भी कश्मीर में लद्दाख की एक घाटी में एक मठ में संरक्षित हैं। भारत में उन्होंने महान दिव्य निदेशक, मैत्रेय और भगवान हिमालय के अधीन अध्ययन किया। यहीं पर उन्हें अपने मिशन के लिए मुख्य मंत्र मिले, जिन्हें बाद में उन्होंने अपने शिष्यों को सिखाया। इनमें से कुछ मंत्र यीशु द्वारा मार्क प्रोफेट को दी गयी दिव्य वाणी "द ट्रांसफ़िगरिंग अफ़र्मेशन्स" में शामिल हैं।

अपने अंतिम अवतार से पहले यीशु जैडकीयल के वर्ग का सदस्य थे। यहाँ उन्होंने आह्वान और रसायन शास्त्र की विद्या हासिल की थी। इस ज्ञान ने उन्हें पानी को शराब में बदलने, समुद्र को शांत करने, बीमार लोगों को ठीक करने और मृतकों को जीवित करने में सक्षम बनाया।

सूली पर चढ़ने और पुनरुत्थान के बाद यीशु कश्मीर चले गए। यहाँ वे ८१ वर्ष की आयु तक रहे। जीवन के समापन पर उन्होंने शम्बाला के आकाशीय आश्रयस्थल से स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया।

विश्व गुरु

मुख्य लेख: विश्व गुरु

आध्यात्मिक उत्थान के बाद यीशु छठी किरण के चौहान बन गए। १ जनवरी १९५६ को जब सनत कुमार शुक्र पर लौटे तो यीशु ने मैत्रेय की जगह विश्व शिक्षक का पद ग्रहण किया, और मैत्रेय पूरे ग्रह के बुद्ध बन गए।

आज का लक्ष्य

यीशु हमें दिव्यगुरुओं के अधीन शिष्यत्व के मार्ग पर चलने के लिए कहते हैं। उन्होंने इस पथ पर चलने के लिए प्रार्थनाओं एक श्रृंखला जारी की है, जो वॉकिंग विद द मास्टर: आंसरिंग द कॉल ऑफ जीसस[7] पुस्तक में प्रकाशित की गई है। कुम्भ युग के अपने शिष्यों से यीशु कहते हैं, “मित्र के लिए अपने प्राण त्यागना प्रेम का सर्वोच्च उदाहरण है ।[8] मेरे प्रिय जनों, मैं मृत्यु की नहीं, बल्कि एक जीवंत जीवन की बात कर रहा हूँ - एक ऐसा जीवन जो मेरे दिल तक पहुंचने के लिए जीया गया है। ऐसा व्यक्ति ही एक सच्चा शिष्य है जो धर्मदूत कहलाने का अधिकार रखता है।वह ही प्रकाश का दूत और प्रकाश का संवाहक माना जाता है। Pearls of Wisdom, vol. ३०, no. २७, ५ जुलाई, १९८७.</ref>

आश्रयस्थल

मुख्य लेख: रेसुररेक्शन टेम्पल

मुख्य लेख: अरेबियन आश्रय स्थल

यीशु का आश्रय स्थल रेसुररेक्शन टेम्पल है, जो पृथ्वी के ऊपर आकाशीय क्षेत्र में स्थित है। वे लाल सागर के उत्तर-पूर्व में अरेबियन रेगिस्तान में अरेबियन आश्रय स्थल में भी कार्य करते हैं।

The radiance of the Christ can be drawn through the playing of his keynote, “Joy to the World.”

See also

Magda

Jesus and Mary Magdalene

Lost years of Jesus

Joseph of Arimathea

For more information

Elizabeth Clare Prophet, The Lost Years of Jesus: Documentary Evidence of Jesus’ 17-Year Journey to the East

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, Lost Teachings of Jesus: Missing Texts • Karma and Reincarnation

Elizabeth Clare Prophet and Staff of Summit University, Walking with the Master: Answering the Call of Jesus

Sources

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, Saint Germain On Alchemy: Formulas for Self-Transformation.

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, The Masters and Their Retreats, s.v. “Jesus.”

Jesus and Kuthumi, Corona Class Lessons: For Those Who Would Teach Men the Way, p. 416.

Pearls of Wisdom, vol. 46, no. 34, August 24, 2003.

Jesus and Kuthumi, Corona Class Lessons: For Those Who Would Teach Men the Way.

Elizabeth Clare Prophet, October 7, 1984.

  1. Gen. ६:५.
  2. Gen.४:२५.
  3. Gen। ४:२६.
  4. Ps.१६:१०.
  5. जॉन ३:३०।
  6. Serapis Bey, Dossier on the Ascension, पृष्ठ ३३.
  7. Elizabeth Clare Prophet and Staff of Summit University, Walking with the Master: Answering the Call of Jesus
  8. जॉन १५:१३.