स्वच्छन्द इच्छा (Free will)

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ईश्वरीय इच्छा से सृजन करने की क्रिया; अध्यात्म या वस्तुवाद का रास्ता, जीवन या मृत्यु, चेतना के सकारात्मक या नकारात्मक रूप को चुनने का विकल्प।

स्वच्छन्द इच्छा का उपहार पाकर, जीवात्मा एक ऐसे स्तर पर रहना चुन सकती है, जहां अच्छाई और बुराई समय और स्थान में किसी के दृष्टिकोण से संबंधित है। या फिर आत्मा निरपेक्ष स्तर चुन सकती है, जहां अच्छाई असली सत्य है और बुराई झूठ एवं काल्पनिक - यहाँ आत्मा ईश्वर को जीवंत सत्य के रूप में प्रत्यक्ष देखती है। स्वतंत्र इच्छा का अर्थ है कि व्यक्ति को ईश्वरीय योजना, ईश्वर के नियमों और प्रेम की चेतना में रहने के अवसर को स्वीकार या अस्वीकार करने का अधिकार है।

ईश्वर की स्वतंत्र इच्छा का उपहार अपने साथ चेतना का एक निश्चित विस्तार लेकर आता है जिसे जीवन काल, अवतारों की एक श्रृंखला और "मनुष्य के निवास की सीमा" के रूप में जाना जाता है।[1] इसलिए जीवात्मा की स्वतंत्र इच्छा के प्रयोग की अवधि न सिर्फ समय और स्थान में सीमित है, बल्कि पृथ्वी पर उसके जन्मों की भी एक निश्चित संख्या में सीमित है। इस समय (जो कि दिनों, वर्षों और आयामों में विभाजित है), के अंत में जीवात्मा का भाग्य इस बात पर निर्भर करता है कि उसने अपनी स्वतंत्र इच्छा का उपयोग किस प्रकार किया है।

जो जीवात्मा दिव्यता (वास्तविकता) को महिमामय करने का मार्ग चुनती है, वह ईश्वरीय स्वरुप में आध्यात्मिक उत्थान को प्राप्त करती है। और जो मानवीय अहंकार (अवास्तविकता) का महिमामंडन करने का मार्ग चुनती है, वह दूसरी मृत्यु,[2] अर्थात उसकी चेतना स्थायी रूप से रद्द हो जाती है और सारी ऊर्जा पवित्र अग्नि से होती हुई ग्रेट सेंट्रल सन में वापस आ जाती है।

स्वतंत्र इच्छा और कर्म

चाहे ईश्वर हो या मनुष्य, स्वतंत्र इच्छा के बिना कोई कर्म नहीं हो सकता। स्वतंत्र इच्छा एकीकरण के नियम का मूल है। केवल ईश्वर और मनुष्य ही कर्म संचय करते हैं, क्योंकि केवल इन्हीं दोनों के पास स्वतंत्र इच्छा का वरदान है। अन्य सभी प्राणी - जिनमें सृष्टि देव, देव और देवदूत शामिल हैं - भगवान और मनुष्य की इच्छापूर्ती के साधन हैं। और इसी कारण वे ईश्वर और मनुष्य के कर्म के साधन भी हैं।

देवदूतों की स्वतंत्र इच्छा ईश्वर की स्वतंत्र इच्छा है। ईश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए देवदूतों की आवश्यकता होती है, क्योंकि मनुष्यों की तरह उन्हें ईश्वर की ऊर्जा के साथ प्रयोग करने की स्वतंत्रता नहीं दी गई है। हालाँकि देवदूत गलतियाँ करते हैं जो ईश्वर की इच्छा के विपरीत परिणाम उत्पन्न करते हैं, पर बाद में वे अपनी गलतियों को सुधार सकते हैं और उस ऊर्जा को ईश्वर की इच्छा के साथ पुनः जोड़ सकते हैं।

देवदूत साम्राज्य का ईश्वर के प्रति विद्रोह मनुष्यों में स्वतंत्र इच्छा के फलस्वरूप होने वाले कर्म-संचय से भिन्न है। स्वतंत्र इच्छा का कार्य ईश्वर के कानून के अंतर्गत मनुष्य के ईश्वरीय स्वरुप को बढ़ाना है। मनुष्य को अपनी स्वतंत्र इच्छा के साथ प्रयोग करने का अधिकार दिया गया है क्योंकि अपने सुकर्मों द्वारा एक दिन वह स्वयं ईश्वर बन सकता है।

दूसरी ओर, देवदूत, जो केवल ईश्वर की स्वतंत्र इच्छा में भागीदार होते हैं, यदि वे ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध कार्य करते हैं, तब वे अपने उच्च स्थान से हट जाते हैं। इस प्रकार, यदि कोई देवदूत ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध कार्य करता है, तो उसे देवदूत साम्राज्य से निष्कासित कर दिया जाना चाहिए और मानवजाति में शामिल कर देना चाहिए।

मानव साम्राज्य देवदूतों के स्तर की अपेक्षा निचले स्तर पर है। इसलिए जब मनुष्य नकारात्मक कर्म करता है, तो उसे संतुलित करते हुए वह अपने स्तर पर ही रहता है। लेकिन एक देवदूत जो ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध जाता है, उसे ईश्वर के साथ पूर्ण पहचान के उसकी उच्च स्तर से हटा दिया जाता है और ईश्वर की ऊर्जा को संतुलित करने के लिए मनुष्य के निवास के निचले क्षेत्रों में भेज दिया जाता है।

अधिक जानकारी के लिए

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स्रोत

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, Saint Germain On Alchemy: Formulas for Self-Transformation

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, The Path of Self-Transformation

  1. Acts १७:२६।
  2. Revसे गुजरती है। २०:६,११-१५; २१:८.