सनत कुमार और महिला दिव्यगुरु वीनस

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सनत कुमार

सनत कुमार को प्राचीनतम पुरुष भी कहते हैं। वे ईसा मसीह के गुरु हैं, शुक्र ग्रह के प्रधान हैं, और सात कुमारों (सात लौ के स्वामी जो शुक्र ग्रह पर किरणों का प्रतिनिधित्व करते हैं) में से एक हैं। वे हमें रूबी किरण के मार्ग पर चलने की दीक्षा देते हैं - इस बात का वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक द ओपनिंग ऑफ द सेवंथ सील में किया है।

उन्होंने पृथ्वी के इतिहास के सबसे अंधकारमय क्षणों में विश्व के भगवान का पद संभाला है। उस अँधेरे समय में पृथ्वी पर रहनेवाले मनुष्य का स्तर गुफाओं में रहने वाले प्रागैतिहासिक मानव के जैसा हो गया था, और मनुष्य ईश्वर के साथ अपने सम्बन्ध और अपने ईश्वरीय स्वरुप को भूल गया था। ऐसे समय, जब ईश्वर पृथ्वी ग्रह का अस्तित्व समाप्त करने वाले थे, सनत कुमार ने पृथ्वी को बचाने के लिए अपना ग्रह (शुक्र) छोड़कर पृथ्वी पर आने का निर्णय लिया। उन्होंने ये फैसला किया कि जब तक पृथ्वीवासी अपने ईश्वरीय स्वरूप को नहीं पहचानते और पुनः ईश्वर के रास्ते पर नहीं चलते तब तक वे यही रहेंगे। शुक्र ग्रह के १४४ हज़ार लोगों ने स्वेच्छापूर्वक इस कार्य में सनत कुमार की सहायता-हेतु पृथ्वी पर आने का निर्णय किया।

पृथ्वी पर उनका आना

सनत कुमार ने ब्रह्मांड के इतिहास की इस महत्वपूर्ण घटना का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है:

आप सब मुझे सनत कुमार के नाम से जानते हैं - वह व्यक्ति जो एक सौ चौवालीस की परिषद - जिसे ब्रह्मांडीय परिषद भी कहते हैं - के समक्ष खड़ा हुआ था। आप मुझे जानते हैं क्योंकि आप मेरी इस बात के साक्षी थे। आपके सामने ही मैंने पृथ्वी के जीवों के लिए प्रार्थना की थी - वो पृथ्वीवासी जो अपनी वास्तविक स्थिति को भूल गए थे और अपने जीवित गुरु से अलग हो गए थे। आप मुझे उस व्यक्ति के रूप में जानते हैं जो पृथ्वी पर सात स्तरों — अग्नि, वायु, जल और पृथ्वी - में विकसित हो रहे जीवों में त्रिदेव ज्योत को मूर्त रूप देने के लिए स्वेच्छा से आया था।

ब्रह्मांडीय परिषद ने पृथ्वी और उसके सभी निवासियों को नष्ट का फरमान जारी किया था क्योंकि पृथ्वीवासी ईश्वर का मार्ग त्याग चुके थे, उन्होंने अपने हृदय में स्थित त्रिदेव ज्योत - जोकि त्रिमूर्ति (ब्रह्मा विष्णु महेश) का रूप है - की उपासना करना बंद कर दिया था। मनुष्य ईश्वर के रास्ते से भटक गए थे और केवल बाह्य अभिव्यक्ति पर ही ज़ोर देते थे। अज्ञानी होने के कारण मनुष्यों ने जानबूझकर ईश्वर के साथ अपने आंतरिक संबंध को त्याग दिया था।

इस प्रकार मंदिरों का प्रकाश बुझ गया था, और जिस उद्देश्य से ईश्वर ने मनुष्य को सृजित किया था — ईश्वर का जीता जागता रूप बनना — वह अब पूरा नहीं हो रहा था। सभी मनुष्य आत्मिक रूप से मर गए थे, वे एक खली पात्र, एक खोखला खोल बन गए थे। पृथ्वी पर कहीं भी रहस्य वाद का कोई विद्यालय नहीं था — न कोई शिष्य था , न ही कोई गुरु, और न ही ईश्वरत्व के मार्ग पर चलने वाला कोई साधक।

वो न्याय की घड़ी थी - सम्पूर्ण पदक्रमों के सर्वोच्च सिंहासन पर विराजमान परमेश्वर ने सर्वसम्मिति से बानी राय को सभी के सामने प्रस्तुत किया - पृथ्वी और वहां रहनेवाले सभी जीवों को नष्ट कर दिया जाए, उन्हें पवित्र अग्नि की मोमबत्ती की तरह प्रज्वलित किया जाए; सभी अनुपयुक्त ऊर्जाओं को ध्रुवीकरण के लिए पुनः महान केंद्रीय सूर्य में लौटा दिया जाए। इससे दुरुपयोग की गई ऊर्जा का अल्फा और ओमेगा के प्रकाश से पुनः नवीनीकरण हो जाएगा, तथा सृजन कार्य के लिए इस ऊर्जा का पुनः उपयोग किया जा सकता है।

पृथ्वी के उद्धार के लिए इस विधि की क्या आवश्यकता थी? बात यह थी कि जो भी व्यक्ति गुरु के रूप में अवतरित हो वह भौतिक जगत में उपस्थित हो और वहां का संतुलन बनाए रखे, तथा प्रत्येक जीवात्मा के लिए जीवन की त्रिदेव ज्योत को भी प्रज्वलित रखे। लॉ ऑफ वन के अनुसार अगर एक भी व्यक्ति शाश्वत ईश्वर पर अपना ध्यान केंद्रित रखता है तो वह अनेकानेक व्यक्तियों के उद्धार में सहायक होता है। जब तक कि सभी व्यक्ति अपने शब्दों और कर्मों के प्रति उत्तरदायी न हो जाएं, और अपने प्रकाश के भार के साथ-साथ अपने सापेक्ष अच्छे और बुरे कर्मों का भार वहन करना शुरू न कर दें तब तक यह व्यक्ति उनके प्रति उत्तरदायी रहता है।

मैंने वह व्यक्ति बनने का निश्चय किया। मैंने स्वेच्छा से पृथ्वी और उसके जीवों के लिए धर्म का पालन करने वाला पुत्र बनने का संकल्प लिया।

काफी विचार-विमर्श के बाद, ब्रह्मांडीय परिषद और परमपिता परमेश्वर ने मेरी याचिका को स्वीकृत किया, और इस तरह पृथ्वी और वहां रहनेवाले सभी जीवों के लिए एक नई दिव्य व्यवस्था बनाने के प्रस्ताव पारित हुआ।

मैं परमपिता परमात्मा के समक्ष नतमस्तक हुआ। उन्होंने मुझसे कहा, “पुत्र सनत कुमार तुम पृथ्वी के सभी जीवों के सामने एक श्वेत सिंहासन पर विराजमान होगे। तुम उनके लिए सर्वोच्च प्रभु, परमेश्वर होगे। तुम उनके लिए देवत्व की सर्वोच्च अभिव्यक्ति होगे। सभी पृथ्वीवासियों को भी ऐसी शिक्षा और दीक्षा दी जायेगी ताकि उनकी जीवात्माएं भी सत्य के मार्ग पर चल कर तुम्हारे सिंहासन तक पहुंच पाएं, अपने ईस्वरीय स्वरूप को पहचान पाएं। जिस दिन वे सब यह कहेंगे कि "सिंहासन पर बैठे व्यक्ति को सदा-सर्वदा आशीर्वाद, सम्मान, महिमा और शक्ति मिले, उस दिन उनका भी उद्धार होगा"।

सर्वोच्च ईश्वर ने मुझसे कहा, “इस प्रकार पृथ्वी के विकास के लिए तू ही अल्फा और ओमेगा होगा, तू ही आदि और अंत होगा, यह एक सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने कहा था"। उन्होंने अपने संरक्षण का सम्पूर्ण दायित्व मुझ पर डाल दिया, उन्होंने मुझे उस जीवनधारा का संरक्षक बना दिया जो उन्होंने स्वयं बनायी थी। यह उनका मुझमें विश्वास था। यह पिता द्वारा पुत्र को दी गयी दीक्षा थी...

और फिर एक सौ चौवालीस की परिषद ने महान श्वेत सिंहासन के चारों ओर एक सौर गोला बनाया। इसके बाद उन्होंने सिंहासन के चारों ओर आंतरिक वृत्त में स्थित प्रकाश के महान प्राणियों के साथ मिलकर जप करना शुरू किया, “सर्वशक्तिमान प्रभु, परमेश्वर हमेशा से पवित्र थे, हैं और आने वाले समय मैं भो पवित्र होंगे"। मैंने उनके इस जप को सुना जो 'सुबह के तारे' तक सुनाई दे रहा था। मेरी समरूप जोड़ी वीनस (जिसे आप शुक्र के नाम से जानते हैं) तथा इस ग्रह पर रहने वाले सभी जीवों ने भी इस जप को सुना।

प्रकाश के संदेशवाहकों ने मेरे आगमन, और ब्रह्मांडीय परिषद द्वारा दी गयी अनुमति की घोषणा की थी। मेरे छह भाई, पवित्र कुमार, जो मेरे साथ सात किरणों की सात ज्वालाओं को धारण करते हैं, माइटी विक्ट्री और उनकी सेना, हमारी पुत्री, मेटा, और अनेक सेवक-सेविकाएं जिन्हें आप दिव्य गुरुओं के रूप में जानते हैं - सभी ने मेरा भव्य स्वागत किया। उस शाम सभी के मन में पृथ्वी को बचाने का अवसर मिलने पर प्रसन्नता थी परन्तु साथ ही बिछुड़ने का दुःख भी था। मैंने स्वेच्छा से एक अंधकारमय ग्रह पर जाने के निर्णय किया था। और यद्यपि यह नियत था कि पृथ्वी स्वतंत्रता का तारा होगी, पर हम सभी जानते थे कि यह काम आसान नहीं था, मेरे लिए मानों यह जीवात्मा की एक लंबी अंधकारमय रात थी।

फिर अचानक घाटियों और पर्वतों से लोगों का एक विशाल समूह प्रकट हुआ - हमने देखा एक लाख चौवालीस हज़ार जीवात्मांएं हमारे महल की ओर आ रही थीं। वे बारह समूहों में हुए थे तथा स्वतंत्रता, प्रेम और विजय के गीत गाते हुए धीरे-धीरे पास आ रहे थे। उनके गीत चारों ओर गूँज रहे थे - देवदूतों के समूह भी आस-पास मंडरा रहे थे। तभी बालकनी से मैंने और वीनस ने देखा तो एक तेरहवां समूह दिखा - इन्होनें सफेद वस्त्र पहन रखे थे। ये मेल्किज़ेडेक संघ के शाही पुरोहित थे - ये वो अभिषिक्त लोग थे जो इस पदानुक्रमित इकाई के केंद्र में लौ और कानून को बनाए रखते थे।

सभी लोग हमारे घर के चारों ओर घेरा बनाकर खड़े हो गए, और जब मेरे प्रति उनकी स्तुति और आराधना का गीत समाप्त हो गए तब उस विशाल जन-समूह के नेता ने हमें संबोधित किया। ये नेता वो थे जिन्हें आप आज जगत के स्वामी गौतम बुद्ध के रूप में जानते और प्रेम करते हैं। उन्होंने कहा, “हे युगों के परमेश्वर, हमने उस वचन के बारे में सुना है जो परमपिता परमेश्वर ने आज आपको दिया है, और आपकी उस प्रतिज्ञा के बारे में भी सुना है जो आपने पृथ्वी पर जीवन की लौ को पुनः लाने के लिए ली है। आप हमारे गुरु हैं, हमारा जीवन और हमारे ईश्वर भी हैं। हम आपको अकेले नहीं जाने देंगे। हम भी आपके साथ चलेंगे। हम एक क्षण के लिए भी आपको अपने शिष्यत्व के बंधन से मुक्त नहीं होने देंगे। हम पृथ्वी पर आपका मार्ग प्रशस्त करेंगे। हम पृथ्वी पर आपके नाम की लौ को जलाए रखेंगे।”

और फिर परमपिता परमेश्वर के आदेश के अनुसार मैंने उनमें से चार सौ लोगों को चुना - इन चार सौ लोगों का काम पृथ्वी पर एक लाख चौवालीस हजार लोगों के आगमन की तैयारी करना था। यद्यपि वे पृथ्वी पर फैले घोर अंधकार के बारे में जानते थे, वास्तव में वे उस बलिदान का वास्तविक अर्थ नहीं जानते थे जो वे अपने गुरु के लिए दे रहे - वो सिर्फ मैं जानता था।

खुशी के मारे हमारी आँखों में आंसू आ गए, मैं, वीनस और एक लाख चौवालीस हजार लोग रो रहे थे। उस यादगार शाम जो आंसू बहे, वे उस पवित्र अग्नि की तरह थे जो महान श्वेत सिंहासन, ब्रह्मांडीय परिषद, और हमारे संरक्षकों से जीवन में बह रही थी।[1]

शम्बाला का निर्माण

इस प्रकार से जब सनत कुमार शुक्र ग्रह से पृथ्वी पर कुछ समय रहने के लिए आए तो उनके साथ प्रकाश के कई महान प्राणियों का एक दल था जिनमें उनकी पुत्री (देवी मेटा) और सात पवित्र कुमारों में से तीन शामिल थे। चार सौ लोगों को पहले भेजा गया - उनका काम गोबी सागर में एक द्वीप (जहाँ पर आज गोबी रेगिस्तान स्थित है) पर एक भव्य आश्रम शम्बाला का निर्माण करना था। उनके साथ कुछ रसायनशास्त्री और वैज्ञानिक भी आए थे - इनमें से एक सौ चौवालीस का काम तत्वों की एक सौ चौवालीस ज्वालाओं को केंद्रित करना था। उन सब ने मिलकर ग्रेट हब में स्थित हीरे की एक प्रतिकृति भी बनाई जो ईश्वर के हीरे जैसे चमकती बुद्धि का केंद्र है।

गोबी सागर में स्थित व्हाइट आइलैंड पर उन्होंने सिटी ऑफ़ व्हाइट का निर्माण किया - यह शहर शुक्र ग्रह पर स्थित कुमारों के नगर की तरह ही बनाया था। सनत कुमार ने शम्बाला के आश्रम में त्रिदेव ज्योत का केंद्र स्थापित किया, जो कई शताब्दियों तक भौतिक रूप में यहाँ विद्यमान रहा। सनत कुमार स्वयं इस आश्रम में रहते थे, लेकिन उन्होंने कभी हमारे जैसे भौतिक शरीर का धारण नहीं किया - भौतिक ब्रह्मांड में होने के बावजूद उनका शरीर अत्यंत सूक्ष्म था।

बाद में इस आश्रम की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक हो गया कि इसे भौतिक जगत से हटाकर आकाशीय स्थल में स्थानांतरित कर दिया जाए। आकाशीय स्थल में स्थित यह स्थान भौतिक आश्रम का हूबहू प्रतिरूप है। नीले पानी वाला गोबी सागर जिसके मध्य में वाइट आइलैंड स्थित था, आज एक मरुस्थल है।

पृथ्वी पर सनत कुमार का ध्येय

सनत कुमार ने अपने हृदय से निकलने वाली प्रकाश की एक किरण से पृथ्वी पर रहने वाले प्रत्येक प्राणी के साथ संपर्क स्थापित किया। इसके द्वारा उन्होंने प्रत्येक प्राणी को अपने पवित्र आत्मिक स्व को पहचानने में सहायता की जिससे उनमें आत्मिक चेतना की उत्पत्ति हुई। अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो संपूर्ण मानवजाति अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त करती, और पृथ्वी भी नष्ट हो जाती।

यूल लॉग जलाने की प्राचीन प्रथा सनत कुमार की इसी सेवा का प्रतीक है - सनत कुमार प्रत्येक वर्ष भौतिक सप्तकों में पवित्र अग्नि का केंद्र स्थापित करते थे। समय के साथ यह एक परंपरा बन गई थी - लोग मीलों दूर से यूल लॉग का एक टुकड़ा लेने के लिए आते थे, और फिर पूरा साल उस से अपने घर में आग जलाते थे। इस प्रकार, सनत कुमार की भौतिक ज्वाला का केंद्र पृथ्वीवासियों के घरों में प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होता था, और यही लोगों का सनत कुमार से प्रत्यक्ष संपर्क करने का साधन भी था।

१ जनवरी १९५६ को जब सनत कुमार के सबसे योग्य शिष्य गौतम बुद्ध को विश्व के स्वामी का पद प्रदान किया गया, सनत कुमार का पृथ्वी आने का मिशन समाप्त हो गया। गौतम बुद्ध के पास पृथ्वी का संतुलन बनाए रखने और त्रिदेव ज्योत का केंद्र बिंदु बने रहने की पर्याप्त सामर्थ्य थी। इसके बाद सनत कुमार विश्व के शासक बने, और इस रूप में वे शुक्र ग्रह पर स्थित अपने निवास से पृथ्वी के विकास में निरंतर सहयोग करते रहे हैं।

इस पदक्रम परिवर्तन से पहले सनत कुमार प्रत्येक वर्ष वृषभ राशि में पूर्णिमा के दौरान वेसाक महोत्सव पर पृथ्वी पर अपार प्रकाश फैलाते थे। उनका यह प्रकाश उनके शिष्यों, गौतम बुद्ध, मैत्रेय और महा चोहान के पद पर आसीन व्यक्ति के माध्यम से प्रसारित होता था। ये तीनों विश्व के स्वामी की तरफ से सनत कुमार के हृदय से निकलने वाली त्रिदेव ज्योत के केंद्र को सहारा देते थे। सनत कुमार के तीव्र प्रकाश के लिए ये तीनो स्टेप-डाउन ट्रान्सफ़ॉर्मर का काम करते थे।

विश्व के विभिन्न धर्मों में सनत कुमार का स्थान

पूर्वी विश्व की धार्मिक परंपराओं में भी सनत कुमार अनेक भूमिकाओं में दिखाई देते हैं, और प्रत्येक भूमिका उनके दिव्य स्वरूप के एक नए पहलू को उजागर करती है। हिंदू धर्म में उन्हें ब्रह्मा के पुत्र के रूप में पूजा जाता है। उन्हें पवित्र युवक के रूप में चित्रित किया जाता है। संस्कृत भाशा में सनत कुमार का अर्थ "सदा युवा" है। सभी कुमारों में वे सबसे विशिष्ट हैं।

मलेशिया की बाटू गुफाओं में कार्तिकेय की मूर्ति

हिंदू धर्म

हिंदू धर्म में सनत कुमार को कभी-कभी स्कंद या कार्तिकेय भी कहा जाता है, जो शिव और पार्वती के पुत्र हैं। कार्तिकेय युद्ध के देवता और देवताओं की दिव्य सेना के सेनापति हैं। उनका जन्म विशेष रूप से तारक नमक राक्षस का वध करने के लिए हुआ था - तारक अज्ञान का प्रतीक है। कार्तिकेय को अक्सर भाला धारण किए हुए दर्शाया जाता है - भाला ज्ञान का प्रतीक है। वे भाले का उपयोग अज्ञान का वध करने के लिए करते हैं। हिंदू धर्म में युद्ध की कहानियों को अक्सर जीवात्मा के आंतरिक संघर्षों को दर्शाने के लिए किया जाता है।

भारतीय लेखक ए. पार्थसारथी कहते हैं कि कार्तिकेय उस "पूर्ण पुरुष" का दर्शाते हैं जिन्होंने परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर लिया है। उनका विनाशकारी भाला उन सभी नकारात्मक प्रवृत्तियों के नाश का प्रतीक है जो मनुष्य के दिव्य स्व को ढक लेती हैं।[2]

उत्तर भारत में पाँचवीं शताब्दी के एक पत्थर के स्तंभ पर खुदे एक शिलालेख में स्कंद को दिव्य माताओं का संरक्षक बताया गया है।[3] कार्तिकेय को कभी-कभी छह सिरों के साथ चित्रित किया जाता है। एक कथा के अनुसार, कार्तिकेय का पालन-पोषण छह प्लीएड्स ने किया था और उनके छह चेहरे इसलिए विकसित हुए ताकि वे प्रत्येक से प्रत्येक प्लीएड्स से दूध पी सकें। एक अन्य कथा के अनुसार, उनका जन्म चमत्कारिक रूप से छह कुंवारी स्त्रियों के छह पुत्रों के रूप में हुआ था। शिव की पत्नी पार्वती ने सभी छह शिशुओं को इतने स्नेह से गले लगाया कि वे छह सिरों वाले एक व्यक्ति बन गए।[4] “कार्तिकेय।” समीक्षक आर. एस. नाथन कहते हैं, “छह सिर छह अलग दिशाओं में विवेक शक्ति के उपयोग का प्रतीक हैं, ताकि उन छह गुणों को नियंत्रण में रखा जा सके जो मनुष्य को उसकी आध्यात्मिक प्रगति से रोकते हैं।”[5]

मार्गरेट और जेम्स स्टटली ने हार्पर डिक्शनरी ऑफ हिंदूइज्म में लिखा है कि स्कंद का जन्म तब हुआ जब शिव ने, "अपनी सहज प्रवृत्तियों पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त करने के बाद, अपनी यौन ऊर्जा को आध्यात्मिक और बौद्धिक उद्देश्यों के लिए लगाया।"[6] कई दन्तकथाओं में बताया गया है कि कार्तिकेय का जन्म माँ के बगैर हुआ था - गंगा में गिरे शिव के शुक्राणु से उनकी उत्पत्ति हुई थी।

दक्षिण भारत में कार्तिकेय को सुब्रमण्य के नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ है "ब्राह्मणों के प्रिय" - ब्राह्मण पुरोहित वर्ग के सदस्य हैं। छोटे से छोटे गाँव में भी सुब्रमण्य का एक मंदिर या तीर्थस्थल तो है ही।

कभी कभी इन्हें स्कंद-कार्तिकेय के नाम से भी पुकारा जाता है - स्कंद-कार्तिकेय को ज्ञान और विद्या का देवता माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि वे अपने भक्तों को आध्यात्मिक शक्तियाँ, विशेषकर ज्ञान की शक्ति प्रदान करते हैं। हिंदू रहस्यवादी परंपरा में, कार्तिकेय को 'गुहा' के नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ है "गुफा" या "गुप्त", क्योंकि वे हृदय की गुफा में निवास करते हैं। हिंदू धर्मग्रंथों में सनत कुमार को "ऋषियों में श्रेष्ठ" और ब्रह्म का ज्ञाता बताया गया है।

पारसी धर्म

The ascended masters teach that the supreme God of Zoroastrianism, Ahura Mazda, is Sanat Kumara. Ahura Mazda means “Wise Lord” or “Lord who bestows intelligence.” He represents the principle of Good and is the guardian of mankind and the opponent of the Evil principle.

Sometime between 1700 and 600 B.C. Zarathustra founded Zoroastrianism in ancient Persia. One morning when he went to fetch water in a river, he beheld a luminous being who led him to Ahura Mazda and five other radiant figures. So great was their light that “he did not see his own shadow upon the earth.” From this group of beings he received his first revelation of a new religion. Shortly afterward, Zarathustra became a spokesman for Ahura Mazda.

The ascetic Sumedha meeting Dipamkara

Dipamkara

After the withdrawal of Shamballa to the etheric octave, Sanat Kumara embodied as Dipamkara, the Lamp-Lighting Buddha. (The Sanskrit word Dipamkara means “kindler of lights” or “the luminous.”) In Buddhist tradition, Dipamkara is a legendary Buddha who lived long, long ago, the first of twenty-four Buddhas who preceded Gautama Buddha. Dipamkara prophesied that the ascetic Sumedha would become the future Buddha Gautama.

Buddhists consider Dipamkara, Gautama Buddha and Lord Maitreya to be the “Buddhas of the three times”—past, present and future. We can understand this to mean that Dipamkara is the past Lord of the World, Gautama Buddha is the present Lord of the World and Maitreya will be the future Lord of the World.

Author Alice Getty writes:

The Dipamkara Buddha is believed to have lived 100,000 years on earth.... He was 3,000 years on earth before finding anyone worthy of hearing the Divine Truth. He then decided to convert the world. He caused “the appearance of a great city to proceed from his lamp and fix itself in space.” While the people of Jambudvipa (India)were gazing upon this miracle, fierce flames were emitted from the four walls. Fear filled their hearts and they looked for a Buddha to save them. Then Dipamkara came forth from the burning city, descended to Jambudvipa, seated himself on the Lion Throne, and began to teach the Law.[7]

The Ancient of Days

Buddhism

In Buddhism, there is a great god known as Brahma Sanam-kumara. His name also means “forever a youth.” Brahma Sanam-kumara is a being so elevated that he must create an apparition body in order to be seen by the gods of the heaven of the Thirty-Three. Sakka, the ruler of the gods, describes his appearance: “He outshines other devas in radiance and glory, just as a figure made of gold outshines the human figure.”[8]

Christianity

The prophet Daniel recorded his vision of Sanat Kumara, whom he called “the Ancient of Days.” Daniel writes:

I beheld till the thrones were cast down, and the Ancient of days did sit, whose garment was white as snow, and the hair of his head like the pure wool: his throne was like the fiery flame, and his wheels [chakras] as burning fire.[9]

Sanat Kumara is also seen in the Book of Revelation as the one who sits upon the great white throne:

And I saw a great white throne and him that sat on it, from whose face the earth and the heaven fled away; and there was found no place for them.[10]

In Theosophy

Helena Blavatsky, in The Secret Doctrine, calls Sanat Kumara the “Great Sacrifice,” because he had exiled himself from the realm of light for the sake of souls stranded in the lower realms. She writes:

Sitting at the Threshold of Light, he looks into it from within the Circle of Darkness, which he will not cross; nor will he quit his post till the last Day of this Life-Cycle. Why does the Solitary Watcher remain at his self-chosen post?... Because the lonely sore-footed Pilgrims, on their journey back to their Home, are never sure, to the last moment, of not losing their way, in this limitless desert of Illusion and Matter called Earth-Life. Because he would fain show the way to that region of freedom and light, from which he is a voluntary exile himself, to every prisoner who has succeeded in liberating himself from the bonds of flesh and illusion. Because, in short, he has sacrificed himself for the sake of Mankind, though but a few elect may profit by the Great Sacrifice.

It is under the direct, silent guidance of this Maha-Guru that all the other less divine Teachers and Instructors of mankind became, from the first awakening of human consciousness, the guides of early Humanity. It is through these “Sons of God” that infant Humanity learned its first notions of all the arts and sciences, as well as of spiritual knowledge; and it is they who laid the first foundation-stone of those ancient civilizations that so sorely puzzle our modern generation of students and scholars.[11]

In his book The Masters and the Path, C. W. Leadbeater (who was writing at a time when Sanat Kumara still occupied the office of Lord of the World) describes Sanat Kumara.

Our world is governed by a spiritual King—one of the Lords of the Flame who came long ago from Venus. He is called by the Hindus Sanat Kumara, the last word being a title, meaning Prince or Ruler. Other names given to him are the One Initiator, the One without a Second, the Eternal Youth of sixteen summers; and often we speak of him as the Lord of the World. He is the Supreme Ruler; in his hand and within his actual aura, lies the whole of his planet. He represents the Logos, as far as this world is concerned, and directs the whole of its evolution—not that of humanity alone, but also the evolution of the Devas, the nature-spirits, and all other creatures connected with the earth....

In his mind he holds the whole plan of evolution at some high level of which we know nothing. He is the Force which drives the whole world-machine, the embodiment of the Divine Will on this planet, and strength, courage, decision, perseverance and all similar characteristics, when they show themselves down here in the lives of men, are reflections from him. His consciousness is of so extended a nature that it comprehends at once all the life on our globe. In his hands are the powers of cyclic destruction, for he wields Fohat in its higher forms and can deal directly with cosmic forces outside our chain....

At a certain point in the progress of an aspirant on the Path he is formally presented to the Lord of the World, and those who have thus met him face to face speak of him as in appearance a handsome youth, dignified, benignant beyond all description, yet with a mien of omniscient, inscrutable majesty, conveying such a sense of resistless power that some have found themselves unable to bear his gaze, and have veiled their faces in awe.... One who has had this experience can never forget it, nor can he ever thereafter doubt that, however terrible the sin and sorrow on earth may be, all things are somehow working together for the eventual good of all, and humanity is being steadily guided towards its final goal.[12]

Lady Master Venus

Lady Master Venus

Sanat Kumara’s twin flame is Lady Master Venus. During his long exile on planet Earth, she remained on their home planet to keep the flame there. Some years after Sanat Kumara’s return in 1956, Lady Venus herself came to earth to assist her evolutions. In a dictation delivered on May 25, 1975, she announced that as Sanat Kumara had kept the flame for earth, now she had come to “tarry for a time on Terra” to “dedicate anew the fires of the Mother.” She said:

I release a fiery momentum of consciousness to arrest all spirals that would take from humanity the fullness of their divinity.... See how mankind respond to the flame of the Mother as they responded to the light of Sanat Kumara.

Return to earth

On July 4, 1977, Sanat Kumara said:

The Cosmic Council and the Lords of Karma have granted and decreed that I might be allowed to tarry on earth, in earth, for certain cycles of manifestation for the absolute return of freedom into the hearts of the lightbearers of earth....

I place my body as a living altar in the midst of the people Israel,[13] and in that body temple is the original blueprint, the [soul] design for every son and daughter of God and the children of God who have come forth. For it is the desire of the Cosmic Virgin that none of her children should be lost, none of her sons and daughters.

And thus I join the Lady Master Venus, who has been tarrying with you these many months; and we together, focusing our twin flames in the Holy City, will stand for the triumph of that community of the Holy Spirit that must be manifest as the key to the release of light in this age.

In a dictation given July 4, 1978, Sanat Kumara told us he was manifesting that night in the physical spectrum “and I am anchoring in this very earth plane the full weight and momentum of my office as the Ancient of Days, such as I have not done since our coming to the Place Prepared at Shamballa.”

Keynote

The strains of Sanat Kumara’s keynote were captured by Jan Sibelius in Finlandia. So powerful is the release of the flame of freedom through this music, that during the occupation of Finland by Russia, its playing was forbidden lest it arouse the fervor of the people for freedom.[14]

अधिक जानकारी के लिए

इसे भी देखिये

स्रोत

Mark L. Prophet and Elizabeth Clare Prophet, The Masters and Their Retreats, s.v. “Sanat Kumara and Lady Master Venus.”

Elizabeth Clare Prophet, July 2, 1993.

Elizabeth Clare Prophet, December 11, 1996.

Elizabeth Clare Prophet, December 31, 1996.

Pearls of Wisdom, vol. 35, no. 42, October 11, 1992.

Pearls of Wisdom, vol. 38, no. 20, May 7, 1995. Endnote 2.

  1. Elizabeth Clare Prophet, The Opening of the Seventh Seal: Sanat Kumara on the Path of the Ruby Ray, पृ. ११–१५.
  2. ए. पार्थसारथी, स्य्म्बोलिस्म इन हिन्दुइस्म", पृष्ठ १५१.
  3. बनर्जी, हिंदू आईकोनोग्राफी , पृ. ३६३–६४.
  4. मार्गरेट स्टटली और जेम्स स्टटली की किताब, हार्पर डिक्शनरी ऑफ़ हिन्दुइस्म (हार्परकॉलिन्स पब्लिशर्स, १९८४), पृ. १४४; एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका, १९६३, एस.वी.
  5. आर. एस. नाथन, स्य्म्बोलिस्म इन हिन्दुइस्म (सेंट्रल चिन्मय मिशन ट्रस्ट, १९८३), पृष्ठ २०.
  6. हार्पर डिक्शनरी ऑफ हिंदूइज्म, पृष्ठ २८२ नोट ३.
  7. Alice Getty, The Gods of Northern Buddhism (Oxford: The Clarendon Press, 1914), pp. 13–14.
  8. Maurice Walsh, trans., Thus Have I Heard: The Long Discourses of the Buddha Digha Nikaya (London: Wisdom Publications, 1987), pp. 295–96.
  9. Dan. 7:9.
  10. Rev. 20:11. See Elizabeth Clare Prophet, The Opening of the Seventh Seal: Sanat Kumara on the Path of the Ruby Ray, p. 13.
  11. Blavatsky, quoted in Charles W. Leadbeater, The Masters and the Path, p. 299.
  12. Leadbeater, The Masters and the Path, p. 296.
  13. The term Israel applies to the collective body of the bearers of the Christic seed and Christ consciousness who have descended from Sanat Kumara and not exclusively to the Jewish people. The ascended masters teach that those who are of the I AM THAT I AM have embodied in all races, kindreds and nations. The term Israelite means, esoterically, “he who Is Real in the mighty I AM Presence.” In Hebrew, Israel means “he will rule as God” or “prevailing with God.”
  14. Finland was under Russian rule from 1809 to 1917, when Finland formally declared her independence. The music of Finnish composer Sibelius, which captured the spirit of the great Finnish epics and legends, heartened the Finns in their movement toward independence. The chorale from Finlandia became so associated with the independence movement that the Russian czar forbade performances of it during periods of political crisis.